ईशा फ़ाउंडेशन के संस्थापक जग्गी वासुदेव, जिन्हें ‘सद्गुरु’ के नाम से जाना जाता है, ने 6 जून को ANI को दिए एक इंटरव्यू में दावा किया कि भारत ने पिछले 5-6 सालों या 10 सालों में “बड़ी” सांप्रदायिक हिंसा नहीं देखी है.
सद्गुरु दुनिया भर के दौरे पर हैं जहां वो कथित तौर पर अपनी मोटरसाइकिल पर यूरोप, मध्य पूर्व और भारत में मिट्टी के बारे में “जागरूकता बढ़ाने” के लिए 18 हज़ार मील की दूरी तय कर रहे हैं. सोमवार को ANI की पत्रकार स्मिता प्रकाश को दिए एक इंटरव्यू में सद्गुरु से देश में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता के बारे में पूछा गया. इस पर उन्होंने जवाब दिया, “मुझे लगता है कि हम चीजों को थोड़ा बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं. हां, कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर बहस की जरुरत है और टेलीविज़न चैनलों पर माहौल बहुत गर्म है आप ये चीजें सड़क पर कहीं भी नहीं देखते हैं, सब ठीक है. आप दिल्ली भर में घूमिए, आप देश के किसी भी गांव में घूमिए, ऐसी कोई असहिष्णुता या ऐसी हिंसा या कुछ भी नहीं है … [sic]”
उन्होंने आगे कहा, “25 साल पहले जब हम यूनिवर्सिटी में थे तो एक भी साल ऐसा नहीं था जब देश में कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ हो. हर साल कहीं न कहीं ऐसा हुआ करता था … काफी ज़्यादा … हमने कम से कम पिछले पांच-छह सालों में या शायद दस सालों में ऐसी चीजें नहीं सुनी हैं हां दुर्भाग्य से कुछ फ्लैश प्वाइंट हुए हैं, … [sic]”
इंटरव्यू के इस हिस्से को ANI ने ट्वीट भी किया गया था और कई मीडिया संगठनों ने इसे दुबारा पब्लिश किया था.
#WATCH | “I think we tend to exaggerate things a bit…There’s a lot of heat on TV channels,you don’t see that anywhere on streets…There are issues where debates going on. I think they’re in court of law..,” Sadhguru Jaggi Vasudev speaks on religious intolerance in the country pic.twitter.com/niFpNNhuoK
— ANI (@ANI) June 6, 2022
बयान का विश्लेष्ण
सद्गुरु से स्मिता प्रकाश का सवाल देश में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता के बारे में था. हालांकि, ऐसा लगता है कि सद्गुरु की असहिष्णुता की समझ वो संघर्ष है जो बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा बन जाती है. असहिष्णुता का मतलब ये नहीं है कि इसे सांप्रदायिक हिंसा में बदलना है जिसके बाद बड़ी संख्या में मौतें होती हैं. इसे रोज़मर्रा के मामलों से भी समझा जा सकता है जिनसे हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर रोक लगाई जाती है, धार्मिक अल्पसंख्यकों को अलग किया जाता है, नफ़रत फ़ैलाने वाले अपराधों की संख्या में इजाफा होता है, नफ़रत फैलाने वाले भाषण दिए जाते हैं, और भी बहुत कुछ.
क्या असहिष्णुता सिर्फ टीवी पर है?
इस सवाल का जवाब देने के लिए, हमने पत्रकार अलीशान जाफरी और नाओमी बार्टन से संपर्क किया, जो द हार्टलैंड हेटवॉच प्रोजेक्ट का हिस्सा हैं. द हार्टलैंड हेटवॉच प्रोजेक्ट, उत्तरी ‘हिंदी बेल्ट’ में धार्मिक मकसद से नफरत फैलाई जाने वाली भाषा और ऐसे अपराधों पर नज़र रखता है. ऐसे राज्य जिनपर निगरानी रखी जाती है उनमें कर्नाटक, त्रिपुरा और गुजरात भी शामिल हैं.
उनके डेटाबेस का इस्तेमाल करते हुए ऑल्ट न्यूज़ ने देखा कि 2022 के पहले पांच महीनों में, इन राज्यों में मीडिया में सांप्रदायिक घटनाओं के कम से कम 88 मामले सामने आए थे.
अप्रैल में 22 मामलों के साथ सांप्रदायिक वजह से हुई घटनाओं की संख्या सबसे ज़्यादा थी. साल के इस समय के दौरान, रामनवमी जुलूस निकाले गए और कई सांप्रदायिक घटनाएं रिपोर्ट की गई थी. मई महीने का डेटाबेस अधूरा होने के बावजूद, मई और फ़रवरी के महीनों में 20-20 मामले दर्ज किए गए थे. धार्मिक बहुसंख्यकवाद और असहिष्णुता के कुछ प्रमुख उदाहरण नीचे दिए गए हैं:
- फ़रवरी 2022 में देश की राजधानी दिल्ली में एक ईसाई पादरी पर भीड़ ने हमला कर दिया और उनसे ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने को कहा. भीड़ ने पादरी पर ‘जबरदस्ती’ धर्म परिवर्तन करने का आरोप भी लगाया.
- मार्च में, कर्नाटक में विश्व हिंदू परिषद ने चामुंडेश्वरी मंदिर के आसपास के मुस्लिम व्यापारियों को बेदखल करने की मांग की.
- अप्रैल में बिहार के मुजफ्फ़रपुर में रामनवमी के जुलूस के दौरान, एक व्यक्ति कथित तौर पर एक मस्जिद के ऊपर चढ़ गया और उसपर भगवा झंडा लगा दिया.
- फिर से अप्रैल में कर्नाटक में श्री राम सेना ने धारवाड़ मंदिर में एक मुस्लिम विक्रेता के फलों की गाड़ियां तोड़ दीं.
- मई में देश की राजधानी दिल्ली में एक धर्म संसद का आयोजन किया गया था जहाँ कई प्रभावशाली हस्तियों ने भड़काऊ भाषण दिए थे, और इस कार्यक्रम को कवर करने वाले पत्रकारों पर हमला किया गया था.
हमने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की वेबसाइट भी चेक की. ये वेबसाइट “भारत में अपराध” नामक एक रिपोर्ट पब्लिश करती है जिसमें 1953 से राष्ट्रीय अपराध पर वार्षिक आँकड़े मौजूद हैं. हमने सांप्रदायिक दंगों के आंकड़ों को देखने के लिए 2014 से 2020 तक की रिपोर्ट्स चेक की. इस टेबल में हाल के सालों 2019 और 2020 के डेटा का ज़िक्र नहीं किया गया है. हालांकि, दोनों सालों के डेटा अलग-अलग लिंक पर मौजूद हैं.
NCRB डेटा का इस्तेमाल करके ऑल्ट न्यूज़ ने देखा कि 2014 के बाद से रिपोर्ट किए गए सांप्रदायिक दंगों की कुल संख्या 5403 है. 2014 में सबसे ज़्यादा सांप्रदायिक हिंसा दर्ज की गई जिसमें 1 हज़ार से ज़्यादा मामले दर्ज किए गए थे. 2014 के बाद 2019 तक इसमें गिरावट दर्ज की गई है. लेकिन एक भी साल ऐसा नहीं है जिसमें सांप्रदायिक हिंसा की सूचना न मिली हो. इसके अलावा, 2019 और 2020 के बीच देश भर में सांप्रदायिक हिंसा में 94% का उछाल आया था.
NCRB सांप्रदायिक घटनाओं के पीड़ितों की कुल संख्या के आंकड़े भी दर्ज करता है और इससे पता चलता है कि 2014 और 2020 के बीच 7,858 लोग सांप्रदायिक हिंसा के शिकार हुए थे.
ध्यान दें कि NCRB की रिपोर्ट ने 2013 के बाद ही सांप्रदायिक हिंसा पर अलग से डेटा प्रदान करना शुरू किया था. इससे पहले, सांप्रदायिक हिंसा के आंकड़ों को “दंगों” के बड़े बैनर के अंदर मिला दिया जाता था जिसमें औद्योगिक, राजनीतिक, सांप्रदायिक, जाति से संबंधित हिंसा आदि शामिल थे. हालांकि, हमें 2019 में एक RTI के जवाब में गृह मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए सांप्रदायिक हिंसा के आंकड़ों के बारे में एक न्यूज़ रिपोर्ट मिली.
RTI के जवाब में गृह मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों का इस्तेमाल करके हमने देखा कि 2007 और 2013 के बीच, सांप्रदायिक हिंसा के मामलों की संख्या 5325 दर्ज की गई थी. UPA काल में, सबसे ज़्यादा सांप्रदायिक हिंसा की संख्या 2008 में दर्ज की गई थी जिसमें 943 मामले दर्ज किए गए थे. इसके बाद 2009 में 849 मामले सामने आए थे.
MHA द्वारा दिए गए आंकड़ों की तुलना NCRB द्वारा दिए गए आंकड़ों से करने पर हमने कुछ गलतियां भी नोटिस कीं. जैसे MHA के आंकड़ों के अनुसार, 2014 में सांप्रदायिक हिंसा के सिर्फ 644 मामले हुए. लेकिन NCRB के अनुसार, 2014 में सांप्रदायिक हिंसा के मामलों की संख्या 1213 थी. फिर से 2017 में MHA के अनुसार, सांप्रदायिक हिंसा के मामलों की संख्या 822 थी. लेकिन जब हमने NCRB द्वारा दिए गए आंकड़ों की जांच की तो पाया कि हिंसा के मामलों की संख्या 723 थी.
MHA और NCRB द्वारा दिए गए सांप्रदायिक हिंसा के आंकड़ों में ये गलती कोई नई बात नहीं है. इसे साल दर साल हाइलाइट किया गया है और अलग-अलग मीडिया आउटलेट्स ने इस पर डिटेल्ड रिपोर्ट भी पब्लिश की है.
सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए अलग आंकड़ों के बावजूद, एक भी साल ऐसा नहीं है जब सांप्रदायिक वजहों से हुई घटनाओं की सूचना नहीं दी गई हो. और ANI के साथ असहिष्णुता की बात करते हुए अपने इस मिलनसार इंटरव्यू के कुछ दिनों बाद, हाल ही में सद्गुरु ने बीबीसी तमिल के साथ एक इंटरव्यू को बीच में ही बंद कर दिया जब इंटरव्यू ले रहे व्यक्ति ने उनसे पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन करने वाले अपने संगठन के बारे में सवाल पूछा.
सतर्कतावाद और घटते राजनीतिक इंडेक्स
सद्गुरु ने तर्क दिया कि 25 साल पहले बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा आम थी और ये हर साल होती थी. जब हम ‘हिंदू-मुस्लिम कम्युनल रायट्स इन इंडिया पार्ट I और II‘ अखबार देखते हैं तो साल 1979 से 1993 तक, हर दो से तीन सालों में लगातार बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा होती रही है. 1984 के सिख विरोधी दंगों में लगभग 3 हज़ार सिख मारे गए. 1989 से 1993 तक यानी बाबरी मस्जिद विध्वंस से ठीक पहले और विध्वंस के बाद, हिंसा में कम से कम 1612 लोग मारे गए थे.
सद्गुरु द्वारा दिए गए तर्कों को ग़लत नहीं कहा जा सकता है. क्योंकि बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा में सैकड़ों और हजारों लोग मारे गए थे. असल में ये काफी आम था. हालांकि, भारत में सांप्रदायिक हिंसा की प्रकृति और अभिव्यक्तियाँ अब बदल गई हैं. बड़े पैमाने पर हिंसा की जगह आजकल लो-इंटेंसिटी, पॉकेट वायलेंस ने ले ली है. विज़िलेंटीज्म, नफरत फ़ैलाने वाली भाषा और सामूहिक दंड देश की सामान्य विशेषताएं बन गए हैं.
उदाहरण के लिए, 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान भारतीय राजनीतिक शब्दावली में “बुलडोज़र” शब्द को जगह मिली. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उनके समर्थकों द्वारा आरोपी अपराधियों के घरों को बुलडोज़र से तुड़वाने पर “बुलडोज़र बाबा” के रूप में संदर्भित किया गया. ये एक मुकदमे के बिना राज्य द्वारा दी गई सजा है जहां अभियुक्त की संपत्ति को तोड़ दिया जाता है, उन्हें और उनके परिवारों की छत छीन ली जाती है. यूपी चुनावों के बाद, मध्य प्रदेश में भाजपा समर्थकों द्वारा इस शब्द को चर्चा में लाया गया. कई ज़िला प्रशासन द्वारा तीन बलात्कार-आरोपियों के घरों को तोड़ने के बाद CM चौहान को “बुलडोज़र मामा” की उपाधि दी गई. इस बुलडोज़र राजनीति के शिकार आमतौर पर मुसलमान ही होते हैं.
इस साल की शुरुआत में, तीन दिवसीय ‘धर्म संसद’ के आयोजकों के खिलाफ़ FIR दर्ज की गई थी. ये धर्म संसद दिसंबर 2021 में आयोजित की गई थी, जहां कई हिंदू धर्मगुरुओं ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए भड़काऊ भाषण दिए थे. सभा के मुख्य आयोजक, यति नरसिंहानंद को बाद में पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया था. तब से वो ज़मानत पर बाहर हैं. अपनी ज़मानत की शर्तों के बावजूद, उन्हें इस तरह के भड़काऊ बयान देने का कहने के बावजूद, नरसिंहानंद ने ये भाषण देना जारी रखा और मुसलमानों के खिलाफ़ हिंसा (यहां देखें और यहां देखें) के लिए आह्वान किया. ये नफरत भरे भाषण नरसिंहानंद जैसे लोगों तक ही सीमित नहीं हैं. हमने यूपी विधानसभा चुनाव (यहां देखें और यहां देखें) के दौरान बीजेपी नेताओं को ऐसी ही भाषा बोलते सुना है.
विज़िलेंटीज़्म भी बढ़ रही है. 2010 से 2017 के बीच गाय से संबंधित हिंसा में मारे गए 86 फीसदी मुस्लिम थे. चाहे मवेशी “तस्करों” को सजा दी जाए या अंतरधार्मिक जोड़ों को सुधारने का काम हो, हिंदुत्व विज़िलेंट ग्रुप्स द्वारा एक एरिया में मुसलमानों की गतिविधियों पर लगातार नज़र रखने के लिए एक उपकरण की तरह व्हाट्सऐप का इस्तेमाल किया जाता है. 2021 में पूरे दिसंबर हिंदू विज़िलेंट ग्रुप्स ने राष्ट्रीय राजधानी के एरिया में मुसलमानों को जुमे की नमाज़ अदा करने की अनुमति नहीं दी.
2021 में एक मुस्लिम कॉमेडियन को एक मजाक के लिए 37 दिन जेल में बिताने पड़े. ऐसा मजाक जो उन्होंने किया ही नहीं. 2021 में फिर से, एक वरिष्ठ मुस्लिम राजनेता के घर में तोड़फोड़ की गई जब उन्होंने हिंदुत्व विचारधारा की तुलना कट्टरपंथी इस्लामी समूहों से की. इसी तरह, 2022 के फ़रवरी में, एक प्रभावशाली मुस्लिम अभिनेता और भारत की सॉफ्ट पावर के पोस्टर बॉय शाहरुख खान पर लता मंगेशकर के पार्थिव शरीर पर थूकने का झूठा आरोप लगाया गया था. हैसियत, ताकत और यहां तक कि फ़ैन फॉलोइंग के बावजूद धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमला आम बात हो गई है. चाहे कोई सेलिब्रिटी हो या सड़क किनारे का विक्रेता. लेकिन उसकी मुस्लिम पहचान की वजह से उत्पीड़न आम है. फर्क सिर्फ इतना है कि जो मुसलमान महंगी कानूनी मदद नहीं ले सकते, वो गरीबी की वजह से ज़्यादा नुकसान में हैं.
मुस्लिम पुरुषों पर लव जिहाद का आरोप भी लगाया जाता है. लव जिहाद के अनुसार, मुस्लिम पुरुषों को हिंदू महिलाओं को फंसाने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है. कई राज्यों ने इस साजिश के आधार पर कानून पेश किए हैं.
भारत में बढ़ती नफरत पर वैश्विक प्रतिक्रिया
अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर संयुक्त राज्य आयोग (USCIRF) ने भारत को 2020 से ‘कंट्री ऑफ़ पर्टिकुलर कंसर्न’ की सूची में डाल दिया है. इसी तरह, लगातार पिछले दो सालों से, फ्रीडम हाउस की वार्षिक रिपोर्ट में भारत को लोकतंत्र और स्वतंत्रता के मामले में ‘पार्शली फ्री’ करार दिया गया है. भारत का प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स भी कुछ समय के लिए फ़्रीफ़ॉल में रहा है. 2022 तक इसकी रैंकिंग 150/180 पर रही है. US में कैटो इंस्टीट्यूट और कनाडा में फ़्रेजर इंस्टीट्यूट द्वारा रखी गई दिसंबर 2021 की द एनुअल ह्यूमन फ़्रीडम इंडेक्स रिपोर्ट में भी भारत को 119/165 स्थान दिया गया है.
This is the first time since 2004 that USCIRF recommends #India as a Country of Particular Concern #USCIRFAnnualReport2020
— USCIRF (@USCIRF) April 28, 2020
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के अध्यक्ष और ‘प्राइस ऑफ़ द मोदी इयर्स’ किताब के लेखक आकार पटेल ने ऑल्ट न्यूज़ से हुई बातचीत में कहा, “2014 के बाद से भारत में मुसलमानों के खिलाफ़ हिंसा बढ़ी है और जानबूझकर उनका राजनीतिक बहिष्कार किया गया है. यही कारण है कि पिछले दो सालों से भारत को द्विदलीय USCIRF द्वारा ‘कंट्री ऑफ़ पर्टिकुलर कंसर्न’ नाम दिया गया है जिसमें भारत सरकार के पदाधिकारियों के खिलाफ़ प्रतिबंधों की सिफारिश की गई है. स्वतंत्रता पर किए जा रहे हमले के कारण भारत को ‘पार्शली फ़्री’ और कश्मीर को ‘नॉट फ़्री’ का दर्जा दिया गया है. विशेष रूप से अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता पर. प्यू रिसर्च सेंटर के ‘रिलीजियस रेस्ट्रीकशन मॉनिटर’ पर भारत इन श्रेणियों में से सभी में टॉप 10 में था: उच्च स्तर पर धार्मिक मानदंडों से संबंधित सामाजिक शत्रुता वाला देश, उच्च स्तर के अंतर-धार्मिक तनाव और हिंसा वाला देश, उच्च स्तर की व्यक्तिगत और सामाजिक उत्पीड़न वाले ऑर्गेनाइज्ड ग्रुप्स द्वारा धार्मिक हिंसा की घटनाएं. भारतीय मुसलमानों के खिलाफ़ हिंसा, बयानबाजी और एक्स्ट्रा-जुडिशियल पनिशमेंट से स्पॉन्सर्ड है और दुनिया ने इस पर ध्यान दिया है.”
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