21 फ़रवरी को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने मल्टीमीडिया न्यूज़ एजेंसी के शो ‘ANI पॉडकास्ट विद स्मिता प्रकाश’ के 42वें एपिशोड में ANI पत्रकार स्मिता प्रकाश को एक इंटरव्यू दिया. इस एपिशोड का टाइटल है, “डॉ. एस जयशंकर, नो होल्ड्स बैरड.” इस चर्चा में राजनयिक से नेता बने जयशंकर के पालन-पोषण और शिक्षा से लेकर मौजूदा राजनीतिक सवालों की एक सीरीज़ शामिल थी जिसमें ‘इंडिया: द मोदी क्वेश्चन‘ टाइटल वाली BBC की डॉक्यूमेंट्री भी शामिल है.

जनवरी 2023 में रिलीज़ हुई डॉक्यूमेंट्री ने भारत में एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया. क्योंकि इसने फ़रवरी-मार्च 2002 में भड़की सांप्रदायिक हिंसा में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका की जांच की. 21 जनवरी को सरकार ने डॉक्यूमेंट्री पर बैन लगा दिया और यूट्यूब और ट्विटर से सभी लिंक हटाने को कहा. विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने डॉक्यूमेंट्री का ज़िक्र करते हुए एक बयान में कहा, “पूर्वाग्रह और वस्तुनिष्ठता की कमी और औपनिवेशिक मानसिकता साफ तौर पर दिखाई दे रही है.”

ANI के शो में 53 मिनट 7 सेकेंड पर, उनके JNU के दिनों पर एक संक्षिप्त चर्चा के बाद, इंटरव्यूर ने जयशंकर से किसी डॉक्यूमेंट्री या किसी किताब पर बैन लगाने या किसी चैनल को भारत में कुछ प्रसारित न करने के लिए कहने की प्रथा के बारे में पूछा. इसके जवाब में उन्होंने कहा, “मुझे नहीं लगता कि आप सही सवाल पूछ रहे हैं… हम किस पर बहस कर रहे हैं? हम सिर्फ एक डॉक्यूमेंट्री या एक भाषण पर बहस नहीं कर रहे हैं जो किसी ने एक यूरोपीय शहर में दिया है… हम असल में राजनीति पर बहस कर रहे हैं जो कि मीडिया के रूप में दिखाया जा रहा है…एक मुहावरा है ‘दूसरे तरीकों से युद्ध’… इसके बारे में सोचो, ये दूसरे तरीके से की गई राजनीति है.”

बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री की ओर इशारा करते हुए, जयशंकर ने कहा, “आप एक हैट्रिक काम करते हैं और कहते हैं कि ये सच्चाई की एक और खोज है जिसे हमने 20 साल बाद इस समय बाहर करने का फैसला किया है. क्या आपको लगता है कि ये समय आकस्मिक है?

फिर, 55 मिनट के आसपास, डॉक्यूमेंट्री पर फिर से चर्चा की गई. जयशंकर ने 56 मिनट 21 सेकेंड पर कहा, “ठीक है आपको एक डॉक्यूमेंट्री बनानी थी…1984 में दिल्ली में कई चीजें हुईं. हमने उस पर डॉक्यूमेंट्री क्यों नहीं देखी? अगर आप कहते हैं कि मैं एक मानवतावादी हूं और जिन लोगों के साथ अन्याय हुआ है, उन्हें न्याय मिलना चाहिए… ये उन लोगों द्वारा खेली जाने वाली राजनीति है जो राजनीतिक क्षेत्र में आने का साहस नहीं रखते हैं…’

दूसरे शब्दों में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सुझाव दिया कि गुजरात दंगों पर बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री को जारी करने के पीछे एक राजनीतिक मकसद था. उन्होंने दिल्ली में 1984 के सिख विरोधी दंगों की ओर इशारा करते हुए कहा कि बीबीसी ने उस पर एक डॉक्यूमेंट्री नहीं बनाई जिससे पक्षपात का संकेत मिलता है.

1984 के दंगों पर बीबीसी डॉक्यूमेंट्री

गूगल पर आसान सा की-वर्ड्स सर्च करने पर पता चला कि बीबीसी ने 31 अक्टूबर, 1984 को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में भड़के सिख दंगों पर एक घंटे की एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है. इसका टाइटल ‘1984 – ए सिख स्टोरी‘ है. ये 2010 में जारी की गई थी जब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली UPA सरकार सत्ता में थी.

इस डॉक्यूमेंट्री में सबसे पहले सोनिया देओल नाम की एक पत्रकार का बयान शूट किया गया है जो उस समय बीबीसी के साथ थी और वो एक सिख हैं. इसके कुछ हिस्से बेहद व्यक्तिगत हैं. लेकिन इसके ज़्यादातर हिस्से में 1984 की घटनाओं को वस्तुगत दूरी से देखने की कोशिश की गई है.

सोनिया कहती हैं कि इस काम में उनका मार्गदर्शन मार्क टली ने किया था जो 22 साल तक दिल्ली में बीबीसी के ब्यूरो प्रमुख रहे थे. सोनिया ने बताया कि बीबीसी ने 1984 की घटनाओं को बड़े पैमाने पर कवर किया था. साथ ही कहा, “1984 के दौरान, न्यूज़ के लिए उत्सुक ब्रिटिश भारतीयों के लिए उनकी रिपोर्ट एक लाइफ़लाइन थी.”

बीबीसी डॉक्यूमेंट्री में क्या दिखाया गया है?

डॉक्यूमेंट्री की शुरुआत ये कहते हुए होती है, “ये इंदिरा गांधी ही थीं जिन्होंने भिंडरावाले को पकड़ने का आदेश दिया और फिर कई घटनाएं शुरू हुई. इसमें हज़ारों मौतें हुईं जिसमें उनकी खुद की मौत भी शामिल है.”

इसमें कहा गया है, “पड़ोसी दुश्मन बन गए” और “एक पवित्र मंदिर हत्या का मैदान बन गया.”

डॉक्यूमेंट्री की शूटिंग के लिए, सोनिया ने अमृतसर और विशेष रूप से स्वर्ण मंदिर का दौरा किया जहां जून, 1984 के पहले सप्ताह में ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ था. इसे तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी द्वारा जरनैल सिंह भिंडरावाले को पकड़ने के लिए ऑथोराइज़्ड किया गया था. जरनैल सिंह भिंडरावाले ने इस धर्मस्थल में शरण ली थी. इसमें गवाहों और बचे लोगों की गवाही दर्ज़ की गई है. ज्ञानी पूरन सिंह नामक एक पुजारी जो उस दिन स्वर्ण मंदिर परिसर के अंदर थे, कैमरे पर ये बताते हैं कि कैसे सेना के टैंक स्वर्ण मंदिर परिसर में घुस गए और ‘अकाल तख्त’ का ‘सब कुछ नष्ट’ कर दिया जहां भिंडरावाले ने खुद को छुपा रखा था.

डॉक्यूमेंट्री की सेटिंग फिर दिल्ली में बदल जाती है जहां न्यायमूर्ति नानावती आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, नवंबर 1984 के पहले 3/4 दिनों में करीब 3 हज़ार सिख मारे गए थे. 31 अक्टूबर, 1984 को सफ़दरजंग मार्ग स्थित इंदिरा गांधी के आवास पर उनके दो सिख अंगरक्षक, बेअंत और सतवंत सिंह द्वारा इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई थी, जिसके बदले में ये किया गया था.

डॉक्यूमेंट्री में ये डिटेल में बताया गया है कि कैसे उस वक्त दिल्ली में चीज़े नियंत्रण से बाहर हो गईं, जब ये ख़बर आई कि इंदिरा गांधी को दो सिखों ने मार डाला है. इसमें एक फ़ोटो जर्नलिस्ट को दिखाया गया है जिन्होंने इन दंगों को पहली बार देखा था. उन्होंने जो देखा वो भयावह था. भीड़ न सिर्फ सिखों को पीट रही थी. बल्कि उन्हें जान से मार भी रही थी. इस पॉइंट पर, डॉक्यूमेंट्री में न्यूज़ पेपर्स की कतरनों को भी दिखाया गया है. ‘भीड़ ने सिखों को ज़िन्दा जला दिया.’ उन्होंने ये भी बताया कि कैसे वो अपने एक सिख दोस्त को अंधेरे कमरे में छिपाकर बचाने में कामयाब रहे.

44 मिनट 12 सेकेंड पर प्रेज़ेंटर ने कहा, “हमले सिर्फ सेंटर दिल्ली में ही नहीं हुए थे… लेकिन भीड़ ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में लोगों को मारना चाहती थी, इसलिए ये लोग दिल्ली के बाहरी इलाके त्रिलोकपुरी और मंगोलपुरी जैसे इलाकों में चले गए. यहीं पर सिख समुदाय रहते थे.”

दोबारा, 44 मिनट 22 सेकेंड पर वो एक गुरुद्वारे में जाती हैं जहां एक सर्वायवर ने उन्हें बताया कि ये दंगे एक अव्यवस्थित भगदड़ नहीं थे. बल्कि सिख समुदाय के खिलाफ़ एक सुनियोजित हमला था. वो याद करते हैं कि कैसे उनके इलाके में पुलिस ने पहले गुरुद्वारे में शरण लेने वाले सिख युवकों से अपने घर वापस जाने के लिए कहा था. फिर गुरुद्वारे को जला दिया गया और भीड़ को उन ब्लॉकों में आपे से बाहर होने दिया जहां सिख रहते थे. प्रेज़ेंटर का कहना है कि पुलिस जिसे असहाय समुदाय की रक्षा करनी चाहिए थी, दंगों में कथित रूप से उनकी मिलीभगत थी.

यानी, ये फ़ैक्ट है कि बीबीसी ने दिल्ली में 1984 के सिख विरोधी दंगों पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी जिसमें बताया गया था कि कैसे राष्ट्रीय राजधानी में सिखों की हत्या की गई थी. एस जयशंकर का अलंकारिक सवाल – “1884 में दिल्ली में बहुत कुछ हुआ था. हमने उस पर कोई डॉक्यूमेंट्री क्यों नहीं देखी.” – फ़ैक्ट्स पर आधारित नहीं है.

बीबीसी ने 1984 पर एक से ज़्यादा डॉक्यूमेंट्री किये हैं

बीबीसी की ऑफ़िशियल वेबसाइट पर की-वर्ड्स सर्च करने पर पता चलता है कि ब्रॉडकास्टर ने असल में 1984, दिल्ली पर एक से ज़्यादा डॉक्यूमेंट्री बनाई है. इसके अलावा, ऐसी कई रिपोर्ट्स हैं जिनमें उस साल की घटनाओं के बारे में बताया गया है.

नवंबर 2009 में बीबीसी ने एक भारतीय पत्रकार का एक लंबा-चौड़ा फ़ीचर आर्टिकल पब्लिश किया था जिन्होंने 1984 के दंगों को ग्राउंड पर कवर किया था. ‘इंदिरा गांधीज़ डेथ रिमेंबेर्ड’ टाइटल का ये आर्टिकल हिंसा के एक-एक वाकये को बयान करता है जिसे कहानी में ‘जातीय सफाई’ के रूप में बताया गया है.

जनवरी 2014 में सिख दंगों की 30वीं बरसी पर बीबीसी रेडियो ने एक डॉक्यूमेंट्री बनाई जिसमें दिखाया गया है कि एक सर्वायवर उन इलाकों में वापस जाता है जहां हिंसा भड़की थी और उन दिनों को याद करता है. इसका नाम है ‘असैसीनेशन: वेन डेल्ही बर्न्ड.’.

फ़रवरी 2014 में BBC ने ‘डेल्ही 1984: इंडियाज कांग्रेस पार्टी स्टील स्ट्रगलिंग टू एस्केप द पास्ट’ टाइटल से एक लंबी-चौड़ी रिपोर्ट पब्लिश की. इसमें कहा गया है, “दिल्ली में कम से कम 3 हज़ार सिख मारे गए, और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के सदस्यों पर व्यापक रूप से हिंसा को प्रोत्साहित करने का आरोप लगाया गया. 1984 की घटना और भी बड़ी है. क्योंकि किसी भी सबंधित व्यक्ति को न्याय के कटघरे में नहीं लाया गया है.” गौरतलब है कि ये भी तब पब्लिश हुआ था जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी. 1984 के पीड़ितों के परिवारों की कानूनी लड़ाई की अगुवाई करने वाले एक सिख वकील हरविंदर सिंह फूलका कहते हैं, “जब भी किसी पीड़ित ने कांग्रेस नेता या पुलिस अधिकारी का नाम लिया, तो उन्होंने मामला दर्ज़ नहीं किया … सत्ता में लोगों के संरक्षण के बिना भारत में, बड़े पैमाने पर कोई हिंसा नहीं हुई है.”

अप्रैल 2013 में बीबीसी हिंदी ने ’84 दंगे: ‘आगे भी मौत थी, पीछे भी मौत‘ टाइटल से पीड़ितों के दृष्टिकोण को सेंटर में रखते हुए एक फ़ीचर पब्लिश किया. एक सर्वायवर ने याद किया कि कैसे दिल्ली पुलिस ने उसकी मदद करने से इनकार कर दिया. जबकि वो बेबसी से मौत को घूर रहा था. मोहन सिंह जिन्होंने अपने दो भाइयों को खो दिया था, कहते हैं, “दिल्ली पुलिस का मुख्यालय आईटीओ चौराहे पर रास्ते में पड़ता है. मैं वहां पहुंचा. मैंने पुलिसकर्मियों को इलाके की स्थिति के बारे में बताया और एक अधिकारी से मिलने की अनुमति मांगी. लेकिन मुझे किसी से नहीं मिलने दिया गया.”

नवंबर 2015 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के ‘विटनेसिंग हिस्ट्री’ सेक्शन ने ‘इंडियाज़ एंटी-सिख रायट्स‘ टाइटल से एक ऑडियो डॉक्यूमेंट्री जारी की.

नवंबर 2017 में बीबीसी ने 1984 के दंगों पर एक फ़ोटो फ़ीचर पब्लिश किया. इसका टाइटल है, ‘हाउ द 1984 रायट्स स्प्रेड अक्रॉस डेल्ही.’’

जनवरी 2021 में बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के इसी ‘विटनेसिंग हिस्ट्री’ सेगमेंट ने ‘फ़ाइटिंग फ़ॉर जस्टिस फ़ॉर इंडियाज़ सिख्स’ टाइटल से एक और ऑडियो डॉक्यूमेंट्री जारी की.

1984 की घटनाओं का बीबीसी का कवरेज

ऑपरेशन ब्लू स्टार ख़त्म होने के लगभग दो सप्ताह बाद, भारत सरकार ने कुछ पत्रकारों को स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दी. बीबीसी के व्यापक रूप से सम्मानित भारत संवाददाता मार्क टली उनमें से एक थे. उनका एक डिस्पैच यहां देखा जा सकता है:

द ट्रिब्यून के अक्टूबर 2017 के एक आर्टिकल में ऑपरेशन ब्लू स्टार ‘रिवेटिंग’ के बाद अमृतसर से मार्क टली द्वारा बीबीसी के डिस्पैच के बारे में बताया गया है.

दरअसल, बीबीसी ने 1984 की घटनाओं पर बड़े पैमाने पर और भरोसेमंद रिपोर्ट की थी. इसका सबसे निर्विवाद प्रमाण ये फ़ैक्ट है कि 31 अक्टूबर को राजीव गांधी को बीबीसी वर्ल्ड सर्विस बुलेटिन से अपनी मां की हत्या के बारे में पता चला. और इस फ़ैक्ट में एक विडंबना ये है कि जब इंदिरा गांधी उस दुर्भाग्यपूर्ण सुबह अपने सफ़दरजंग मार्ग के घर से बाहर निकलीं, तो वो बीबीसी की भारत पर एक डॉक्यूमेंट्री के लिए पत्रकार पीटर उस्तीनोव के साथ एक इंटरव्यू के लिए लॉन के ठीक सामने अपने अकबर रोड कार्यालय की ओर जा रही थीं. इंदिरा गांधी के मौत जिस दिन हुई उस दिन ये इंटरव्यू उनका पहला काम था. उन्हें बगीचे के रास्ते के ठीक बीच में गोली मारी गई थी.

कैथरीन फ़्रैंक की किताब ‘इंदिरा: द लाइफ़ ऑफ़ इंदिरा नेहरू गांधी’ (हार्पर कॉलिन्स, 2005) जिसे पूर्व पीएम की सबसे ऑफ़िशियल जीवनी माना जाता है, इन दोनों फ़ैक्ट्स की पुष्टि करती है.

फ्रैंक लिखती हैं: “31 अक्टूबर, 1984 की सुबह, राजीव गांधी पश्चिम बंगाल के एक सुदूर इलाके में चुनाव पूर्व दौरे पर एक गांव से दूसरे गांव की यात्रा कर रहे थे. कलकत्ता से 100 मील दक्षिण में एक धूल भरी ग्रामीण सड़क पर राजीव की सफेद एंबेसडर कार को एक पुलिस जीप ने रोक लिया. एक अधिकारी बाहर निकला और उसने राजीव को एक नोट दिया: “प्रधानमंत्री के घर में एक दुर्घटना हुई है. सभी नियुक्तियों को रद्द करें और तुरंत दिल्ली लौटें. राजीव गांधी और उनके साथी तेजी से अपनी एंबेसडर पर सवार हुए जो मर्सिडीज़ के बाद दूसरी सबसे तेज़ कार है, और कलकत्ता की ओर बढ़ गए. जब वो गड्ढों वाली सड़क पर गाड़ी चला रहे थे, ड्राइवर ने कार के रेडियो पर बीबीसी वर्ल्ड सर्विस शुरू किया. जब 10 बजे का न्यूज़ बुलेटिन शुरू हुआ, तो उन्होंने सुना कि इंदिरा को उनके बॉडीगार्ड्स ने गोली मार दी थी और उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ले जाया गया था.” (पेज 495)

बीबीसी डॉक्यूमेंट्री के इंटरव्यू का ज़िक्र पेज 491 पर किया गया है. इसे नीचे पढ़ा जा सकता है:

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पोस्टस्क्रिप्ट: बीबीसी का इंदिरा गांधी और कांग्रेस के साथ संबंध

पत्रकार कूमी कपूर की किताब ‘द इमरजेंसी: ए पर्सनल हिस्ट्री’ (पेंगुइन वाइकिंग, 2015) में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में भारत में बीबीसी के कठिन समय के बारे में बताया गया है, खासकर इमरजेंसी के दौरान.

मार्क टली ने कूमी कपूर को बताया कि 26 जून, 1975 को, इमरजेंसी की घोषणा के एक दिन बाद, गांधी परिवार के एक पारिवारिक मित्र, मोहम्मद यूनुस, जिनका बहुत प्रभाव था, ने गुस्से में सूचना और प्रसारण मंत्री आईके गुजराल को फ़ोन किया और “दावा किया कि बीबीसी ने रिपोर्ट किया था कि “सरकार के कुछ सदस्यों जैसे कि जगजीवन राम, स्वर्ण सिंह और गुजराल ने खुद इमरजेंसी का समर्थन नहीं किया था और उन्हें नजरबंद कर दिया गया था. यूनुस चाहते थे कि बीबीसी के नई दिल्ली के संवाददाता मार्क टली को गिरफ़्तार किया जाए. उनकी सलाह थी, “इसकी पैंट उतारो और इसे कुछ कोड़े मारो और इसे जेल में डाल दो.” बाद में जांच करने पर, ये पता चला कि ये बीबीसी नहीं था जिस पर आकाशवाणी से निगरानी रखी जा रही थी, और जिसने आपत्तिजनक रिपोर्ट प्रसारित की थी. बल्कि इसके पीछे एक पाकिस्तानी न्यूज़ प्रोग्राम था. (पेज 50)

हालांकि मार्क टली को जल्द ही भारत छोड़ना पड़ा. इमरजेंसी के कुछ महीने बाद, सरकार भारत में विदेशी संवाददाताओं के लिए सेंसरशिप कार्यक्रम लेकर आई. बीबीसी उन संगठनों में से एक था जिसने समझौते पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था. नतीजतन, दिल्ली ब्यूरो के प्रमुख मार्क टली को देश छोड़ने के लिए 24 घंटे का समय दिया गया. न्यूज़वीक के लोरेन जेनकिंस एक अन्य पत्रकार थे जिन्हें जाने के लिए कहा गया था. उन्होंने बाद में लिखा, “फ्रेंको के स्पेन से माओ के चीन तक दुनिया को कवर करने के 10 सालों में मुझे कभी भी इस तरह के कड़े और इस तरह की सेंसरशिप का सामना नहीं करना पड़ा. बीबीसी के भारत में कोई संवाददाता न होने के बाद भी इसका प्रसारण जारी रहा. मार्क टली याद करते हैं, रेडियो स्टेशन को अपनी न्यूज़ रॉयटर्स से मिलती थी… बीबीसी सरकार विरोधी न्यूज़ के लिए एक पर्यायवाची बन गया…’बीबीसी में सुना है’ आपातकाल विरोधी कहानियों के लिए प्रामाणिकता का दावा करने के लिए एक आम बात थी. (कपूर, पेज 59)

कुल मिलाकर, बीबीसी ने न सिर्फ 1984 के दिल्ली दंगों पर दशकों से कई डॉक्यूमेंट्री, पॉडकास्ट और फ़ीचर पब्लिश किए. बल्कि जहां तक ​​​​शासन का सवाल है, इंदिरा के शासन के दौरान मीडिया बिरादरी में ये सबसे ज़्यादा लगातार आलोचनात्मक आवाज़ों में से एक थी. और इन्हें इसका खामियाजा भी उठाना पड़ा. इसलिए, विदेश मंत्री एस जयशंकर का पूर्वाग्रह का आक्षेप, रिकॉर्ड किए गए इतिहास की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है.

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About the Author

Indradeep, a journalist with over 10 years' experience in print and digital media, is a Senior Editor at Alt News. Earlier, he has worked with The Times of India and The Wire. Politics and literature are among his areas of interest.