16 अगस्त को, ईंधन की बढ़ती कीमतों के मुद्दे पर मीडिया के सवालों का जवाब देते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा, “यूपीए सरकार ने 1.44 लाख करोड़ रुपये के तेल बॉन्ड जारी करके ईंधन की कीमतों में कमी की थी. मैं पिछली यूपीए सरकार द्वारा की गई चालबाज़ी नहीं कर सकती. ऑयल बॉन्ड की वजह से हमारी सरकार पर बोझ आ गया है. हम यूपीए सरकार के 1.44 लाख करोड़ रुपये के ऑयल बॉन्ड का भुगतान करने में जूझ रहे हैं.”
उन्होंने कहा, “हमें अभी भी 2026 तक 37 हज़ार करोड़ रुपये का ब्याज देना होगा. ब्याज भुगतान के बावजूद 1.30 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का मूलधन फिर भी बाकी रह जाता है. अगर मेरे पास ऑयल बॉन्ड का बोझ नहीं होता, तो मैं ईंधन पर उत्पाद शुल्क कम करने की स्थिति में होती.”
कुछ मीडिया आउटलेट्स ने निर्मला सीतारमण के इस बयान को पब्लिश किया जिसमें लाइवमिंट, फ्री प्रेस जर्नल, ज़ी न्यूज़, न्यूज़18, ज़ी बिज़नेस और लेटेस्ट ली शामिल हैं. इनमें से ज़्यादातर आर्टिकल्स का क्रेडिट ANI और PTI को दिया गया है.
बीजेपी ने 2018 में भी यही दावा किया था.
What the economist PM Manmohan Singh said & did on petroleum prices? He said that money does not grow on trees & left unpaid bills of oil bonds worth Rs. 1.3 lakh crore. Modi govt paid off the pending bills with interest because ‘we should not burden our children’. #NationFirst pic.twitter.com/Z8zTV1kG1i
— BJP (@BJP4India) September 10, 2018
फ़ैक्ट-चेक
निर्मला सीतारमण ने ईंधन पर उत्पाद शुल्क कम न कर पाने के लिए यूपीए सरकार के दौरान हुए ऑयल बॉन्ड पर भुगतान किए जा रहे ब्याज़ को ज़िम्मेदार बताया. जबकि आंकड़े ऐसा नहीं कहते. साल 2021-22 में केंद्र सरकार की पेट्रोलियम सेक्टर से हुई कमाई (4.5 लाख करोड़ रुपये) ऑयल बॉन्ड की मूल रकम और कुल ब्याज़ (दोनों लगभग 1.44 लाख करोड़ रुपये) के योग से कहीं ज़्यादा है. सत्ता में आने के बाद से, भाजपा सरकार ने 22 अगस्त 2021 तक मूल रकम के लिए 3 हज़ार 500 करोड़ रुपये और ब्याज़ के लिए लगभग 10 हज़ार करोड़ रुपये सालाना का भुगतान किया है.
इससे पहले हम ये समझें कि ऑयल बॉन्ड क्यूं जारी किए गए? ऑयल बॉन्ड क्या हैं? वर्तमान ईंधन पर उनके प्रभाव का क्या है? अर्थव्यवस्था पर ईंधन की कीमतों का मुद्रास्फीति पर प्रभाव को समझना ज़रूरी है.
बढ़ी हुई कीमतों का प्रभाव
भारत में ईंधन की मांग काफ़ी हद तक आयात के ज़रिए पूरी की जाती है. इस तरह, ईंधन की वैश्विक कीमत बढ़ने से भारत को घाटा होता है. हालांकि, घरेलू ईंधन की कीमत बढ़ती है तो चीज़ों पर देखा-अनदेखा, दोनों तरह का प्रभाव पड़ता है क्योंकि ये कच्चे तेल के उपयोग से बनी दूसरी सभी चीज़ों की खुदरा कीमतों को प्रभावित करता है. जैसे, ट्रांसपोर्टेशन की लागत बढ़ने से सब्जियों की कीमतें बढ़ जाती हैं.
जुलाई में, ऑल्ट न्यूज़ ने एक रिपोर्ट पब्लिश की थी कि प्रति लीटर ईंधन के खुदरा मूल्य का लगभग 33% हिस्सा उत्पाद शुल्क के रूप में केंद्र सरकार को जाता है. जून में, प्रोफ़ेशनल इन्वेस्टमेंट इनफ़ॉर्मैशन और क्रेडिट रेटिंग एजेंसी, ICRA लिमिटेड ने बताया कि केंद्र सरकार रेवेन्यू खोए बिना मुद्रास्फीति के दबाव को कम करने के लिए, पेट्रोल और डीज़ल पर 4.5 रुपये प्रति लीटर सेस में कटौती कर सकती है.
ऑयल बॉन्ड क्यों जारी किए गए थे?
2014 से पहले (यूपीए सरकार के दौरान) वैश्विक तौर पर कच्चे तेल की कीमतें भाजपा सरकार के समय की तुलना में काफी ज़्यादा थीं. फिर भी यूपीए सरकार के समय ईंधन की कीमतें मौजूदा कीमतों से कम थीं.
यूपीए ने ये कैसे संभव किया? IIM अहमदाबाद के पूर्व छात्र भाबू हरीश गुर्रम द्वारा सह-स्थापित एक फाइनेंस न्यूज़लेटर प्लेटफ़ॉर्म फिनशॉट्स के अनुसार, “2005 में, यूपीए सरकार के आगे एक बड़ी समस्या थी. वे आम जनता के लिए ईंधन ज़्यादा आसान बनाने के लिए तेल की कीमत तय करने की कोशिश कर रहे थे. उन्होंने अपने बजट [जिसे अंडर-रिकवरी के रूप में जाना जाता है] के एक हिस्से को अलग करके तेल की कीमत पर सब्सिडी दी. और अपने क्रेडिट के लिए [ऑयल बॉन्ड के रूप में], उन्होंने ऐसा तब तक करना जारी रखा जब तक उन्हें ये नहीं लग गया कि वे इसे और नहीं कर सकते.”
गौरतलब है कि 2006 में पेट्रोलियम उत्पाद के कीमत निर्धारण और टैक्स लगाने पर समिति ने बताया, “ऑयल बॉन्ड जारी करना अनुचित है क्योंकि ये समस्या का समाधान न करके सिर्फ़ आर्थिक और वित्तीय लागत को जोड़कर समाधान को स्थगित कर देता है.”
द हिंदू को दिए एक इंटरव्यू में इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के तत्कालीन (2012) अध्यक्ष RS बुटोला ने समझाया, “ये [अंडर-रिकवरी] असल में रेवेन्यू का एक नुकसान है. अंडर-रिकवरी उत्पादों के खरीदे जाने की कीमत और उनके बेचे जाने की कीमतों के बीच का अंतर है. जबकि खरीद मूल्य, जो आयात-समानता पर आधारित हैं, अंतर्राष्ट्रीय कीमतों के अनुसार बदलते हैं. संवेदनशील उत्पादों की बिक्री कीमतों को सरकार नियंत्रित करती है. दोनों के बीच का अंतर अंडर-रिकवरी होता है.”
तीन साल पहले मनीकंट्रोल ने समझाया था, “मंदी के बाद, तेल निर्माण कंपनियों (OMCs) को बड़े अंडर-रिकवरी का सामना करना पड़ रहा था. जिससे सरकार के सामने OMC की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने की समस्या आ गयी, जबकि इनमें से कई सरकार के स्वामित्व में हैं, फिर भी ईंधन की कीमतें बढ़ाने की अनुमति देने के राजनीतिक नतीजों को ध्यान में रखना था. कीमतों को नियंत्रण में रखते हुए OMC पर दबाव कम करने के लिए ऑयल बॉन्ड को चुना गया था.”
ऑयल बॉन्ड क्या हैं?
सभी बॉन्ड्स की तरह, ऑयल बॉन्ड एक तरह का लोन हैं. इन्वेस्टोपेडिया के मुताबिक, “बॉन्ड एक फिक्स्ड इनकम है जो एक इन्वेस्टर को एक उधार लेने वाले (आमतौर पर कॉर्पोरेट या सरकार) को दिए गए लोन का प्रतिनिधित्व करता है. सरकारें (सभी स्तर पर) और निगम, आमतौर पर पैसे उधार लेने के लिए बॉन्ड का उपयोग करते हैं”. यूपीए ने उन्हें उपर्युक्त अंडर-रिकवरी को पूरा करने के लिए जारी किया था. बॉन्ड का जोखिम कम होने के कारण इन्हें बाज़ार में बेचा जा सकता है. जुलाई की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि इन बॉन्ड्स को जारी करने वाले दो OMC ने उन्हें बेच दिया था.
2011-12 के बजट के बाद से, ऑयल बॉन्ड्स की रसीद बजट सेक्शन के तहत एक डेडिकेटेड सेक्शन में ऑयल बॉन्ड्स को विशेष रूप से दर्शाया गया था. उक्त बजट के अनुसार 1.44 लाख करोड़ रुपये की राशि का भुगतान 14 साल के समय में ब्याज सहित किश्तों में किया जाना था. सभी किश्त का समय पहले से निर्धारित था.
ब्लूमबर्ग क्विंट (BQ) ने ब्याज़ राशि की गणना की. मालूम पड़ा कि भाजपा सरकार ने 2014 से 2021 तक हर साल बॉन्ड पर ब्याज के रूप में लगभग 10 हज़ार करोड़ रुपये का भुगतान किया है: कुल मिलाकर ये लगभग 70 हज़ार करोड़ रुपये होते हैं. पाठक ध्यान दें कि ब्याज़ राशि को BQ ने राउंड ऑफ़ किया है.
ऑयल बॉन्ड की मूल राशि (1.44 लाख करोड़ रुपये) पर वार्षिक ब्याज के अलावा, भाजपा सरकार ने 2015 में मूल राशि के 3 हज़ार 5 सौ करोड़ रुपये (1,750 x 2) का भुगतान किया था. 2024 तक भाजपा सरकार ने मूल राशि का 73 हज़ार 4 सौ 53 (ऑरेंज हाइलाइट) करोड़ रुपये का भुगतान किया होगा जिसमें 2021 का 10 हज़ार (5,000 x 2) करोड़ रुपये शामिल हैं.
क्या ऑयल बॉन्ड के कारण ईंधन की कीमतें बढ़ी हैं?
केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का ये दावा – “अगर मेरे पास ऑयल बॉन्ड का बोझ नहीं होता, तो मैं ईंधन पर उत्पाद शुल्क को कम करने की स्थिति में होती,” मायने नहीं रखता. क्योंकि आय (लाल रंग में हाइलाइट की गई) केंद्र सरकार के लिए पेट्रोलियम सेक्टर 2024 तक ऑयल बॉन्ड और कुल मूलधन पर ब्याज से काफ़ी ज़्यादा है.
वित्त वर्ष 2020-21 में, केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम सेक्टर से 4.5 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा की कमाई की. ये यूपीए द्वारा जारी किए गए ऑयल बॉन्ड की कुल लागत का 3 गुना [1.44*3=4.32] से भी ज़्यादा है. इसी तरह, उसी साल ऑयल बॉन्ड पर वार्षिक ब्याज 2020-21 में पेट्रोलियम से होने वाले रेवेन्यू का लगभग 2.2 प्रतिशत है. [₹9,990/₹4,53,812*100]
पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम सहित कई मीडिया आउटलेट्स, पत्रकारों और सोशल मीडिया यूज़र्स ने इस भ्रामक दावे की निंदा की है.
The FM’s statement that servicing oil bonds stands in the way of giving relief on petrol and diesel prices is astonishing.
At best the statement is incredible ignorance; at the worst it is motivated malignity.
— P. Chidambaram (@PChidambaram_IN) August 17, 2021
उज्जैन में लगे ‘काज़ी साहब ज़िन्दाबाद’ के नारे, मगर पुलिस का कहना है कि ‘पाकिस्तान ज़िन्दाबाद’ भी कहा गया:
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