अमेरिकी ऐक्टर और लेखक शाशा बैरन कोहेन ने एक भाषण के दौरान फे़सबुक पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अगर ये 1930 के दशक में होता तो कंपनी ‘यहूदी समस्या’ पर हिटलर को राजनीतिक विज्ञापन की इजाज़त भी दे देती. शाशा बैरन का ये सन्दर्भ हैरान नहीं करता है- दुनियाभर की सत्तावादी सरकारें फ़ेसबुक (और इसके साथी इन्स्टाग्राम और व्हाट्सऐप) के ताकत का इस्तेमाल उसी तरह कर रही हैं जैसे नाज़ियों ने अपने प्रोपेगेंडा के लिए रेडियो का इस्तेमाल किया था.
फे़सबुक का राजनेताओं की फै़क्ट-चेकिंग से बचना भ्रामक सूचनाओं को और ज़्यादा फैलने का मौका देता है.
हाल ही में, भाजपा विधायक हेमंत बिस्वा शर्मा ने ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट (AIUDF) के समर्थकों का एक वीडियो शेयर किया जिसमें वे सिलचर हवाई अड्डे पर पार्टी के नेता मौलाना बदरुद्दीन अजमल के लिए नारे लगा रहे थे. हेमंत बिस्वा शर्मा ने ग़लत दावा शेयर करते हुए कहा कि ‘पाकिस्तान ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाये गये थे. इस भ्रामक सूचना की सच्चाई ऑल्ट न्यूज़ और फे़सबुक के फै़क्ट चेकिंग पार्टनर बूमलाइव और द क्विंट ने बताई थी. बूमलाइव की स्टोरी के बाद फे़सबुक ने हेमंत बिस्वा शर्मा के पोस्ट पर ‘फॅ़ाल्स इन्फॅ़ार्मेशन’ का लेबल लगा दिया था जिसे बाद में हटा दिया गया.
फे़सबुक के एक प्रवक्ता ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि हेमन्त बिस्वा शर्मा के पोस्ट पर ‘फॅ़ाल्स इन्फॅ़ार्मेशन’ का टैग गलती से लगा दिया गया था. ऑल्ट न्यूज़ ने फे़सबुक से इस पर सवाल किये तो हमें भी वही पुरानी प्रतिक्रिया मिली जिसमें बताया गया था कि नेताओं द्वारा शेयर किये गये कॉन्टेंट का फै़क्ट चेक नहीं किया जाता है.
लेकिन हमने फे़सबुक की नीतियों में विरोधाभास देखने को मिला.
अलग-अलग नेताओं के प्रति बर्ताव में फ़र्क
इसी साल सितम्बर में किसानों के प्रदर्शन के दौरान एक वीडियो शेयर किया गया जिसमें पीएम मोदी की नकली शवयात्रा दिख रही थी. दावा किया गया था कि ये शवयात्रा किसानों ने निकाली थी. असल में ये तमिलनाडु का 2017 का वीडियो था. इसके बाद 2018 में इस क्लिप को दोबारा शेयर करते हुए इसे पाकिस्तान में निकाले जा रहे जुलूस का बताया गया. बूमलाइव, द क्विंट और इंडिया टुडे (जो फे़सबुक की थर्ड-पार्टी फै़क्ट-चेकर है) ने इसकी सच्चाई बताई थी. कई लिंक जो 2 साल पुराने हैं (लिंक 1, लिंक 2, लिंक 3), उनपर ‘फॅ़ाल्स इन्फॅ़ार्मेशन’ का लेबल नहीं आता. लेकिन इसी साल शेयर किये गये कुछ पोस्ट पर ‘ऑल्टर्ड वीडियो’ का लेबल दिखता है जिसमें कांग्रेस नेता उदित राज का पोस्ट शामिल है.
हाल ही में फे़सबुक के फै़क्ट-चेकिंग पार्टनर, फै़क्ट क्रेसेंडो की एक रिपोर्ट के बाद भाजपा दिल्ली के नेता तेजिंदर पाल सिंह बग्गा के एक वीडियो पर ‘पार्टली फॅ़ाल्स इन्फॅ़ार्मेशन’ का लेबल लगाया गया था.
फे़सबुक ने नेताओं को ‘राजनीतिक पार्टी और उनके नेताओं समेत-कार्यालय के उम्मीदवार, वर्तमान में कार्यरत व्यक्ति और उसके मंत्रिमंडल’ के रूप में परिभाषित किया है. इस परिभाषा के मुताबिक उदित राज और तेजिंदर बग्गा दोनों ही नेता है, फिर भी दोनों के पोस्ट पर वार्निंग मेसेज लगाया गया. और यही कारण देते हुए फे़सबुक ने हेमंत बिस्वा शर्मा के पोस्ट से रेड फ़्लैग हटाया.
वहीं, फे़सबुक ने अमरीकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प के शेयर किये गए एक यूट्यूब वीडियो पर ‘फॅ़ाल्स इन्फॅ़ार्मेशन’ का लेबल लगाया था.
So @Facebook fact checks kick in only AFTER you pressure Facebook comms people on Twitter.
cc: @slpng_giants https://t.co/hGmeXgnM47
— The Real Facebook Oversight Board (@FBoversight) November 19, 2020
फे़सबुक की फै़क्ट-चेकिंग का विरोधाभासी मानक
हाल के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में ट्रम्प के उस ट्वीट पर वॅार्निंग लेबल लगाया गया था जिसमें उन्होंने परिणाम से पहले ही जीत का दावा किया था. हालांकि बज़फ़ीड की एक रिपोर्ट के मुताबिक इसका कोई खास असर नहीं हुआ था. लेकिन क्या फे़सबुक यही कदम दुनिया की बाकी जगहों में हो रहे चुनावों के दौरान उठाएगा? लगता तो नहीं है.
फे़सबुक और ट्विटर, दोनों ने सीनेट ज्यूडिशियरी कमिटी की सुनवाई में आश्वासन दिया था कि जॉर्जिया में सीनेट के लिए होने जा रहे चुनावों में ‘लोगों को वोटिंग से रोकने के लिए फैलाई जा रही भ्रामक सूचनाओं’ को रोकने का उनके पास प्रोग्राम मौजूद है. जहां ट्विटर ने पूरे विश्व में राजनीतिक विज्ञापनों पर बैन लगाया हुआ है, फे़सबुक ने ये बैन अमेरिकी चुनावों के दौरान कुछ ही समय के लिए लगाया था. ये बैन राष्ट्रपति चुनावों से एक हफ़्ते पहले लगाया था और फिर इसे कम से कम एक महीने के लिए और बढ़ा दिया गया.
लेकिन फे़सबुक की नीतियां अमेरिका तक ही सीमित हैं. भारत में भी चुनाव होने वाले हैं. इसमें पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव शामिल है, जो कि जॉर्जिया से करीब 9 गुनी ज़्यादा आबादी वाला राज्य है. लेकिन फे़सबुक ने भारत में गलत सूचनाओं के रोकथाम के लिए किसी भी तरह की नीति की घोषणा नहीं की है.
टेक दिग्गज फे़सबुक की वैश्विक नीतियां अधिकतर पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका को ध्यान में रखते हुए बनाई गयी हैं. कम्पनी कई विकासशील देशों में राजनीतिक तौर से बढ़ावा दी गयी ग़लत सूचनाओं को रोकने में विफ़ल रही है- चाहे वो भड़काऊ भाषण के कारण इथियोपिया को नरसंहार की तरफ़ धकेलना हो या म्यांमार में उकसाने वाले पोस्ट के बाद हुई जातीय हिंसा हो.
फे़सबुक ग़लत सूचनाओं को रोकने के लिए थर्ड-पार्टी पर निर्भर करता है. लेकिन फै़क्ट-चेकर्स को राजनीतिक भाषणों या कॉन्टेंट पर जांच से रोका जाता है. CNBC के साथ एक इंटरव्यू में फे़सबुक के सीईओ, मार्क ज़करबर्ग ने कहा था, “मुझे नहीं लगता कि फे़सबुक या इन्टरनेट प्लेटफ़ॉर्म्स को सच्चाई की वक़ालत करनी चाहिए. सही और ग़लत का फ़ैसला सुनाते हुए कदम बढ़ाना खतरनाक है. मुझे लगता है कि राजनीतिक भाषण लोकतंत्र के सबसे संवेदनशील हिस्सों में से एक है. लोगों को पता होना चाहिए नेता क्या बोल रहे हैं और उसकी विवेचना के लिए पहले से ही कई लोग मौजूद हैं. राजनीतिक भाषणों की पड़ताल सबसे ज़्यादा मीडिया ही करती है और मुझे लगता है वो आगे भी जारी रहेगा ही.”
राजनीतिक भाषणों की भले ही अमेरिका में बड़े स्तर पर विवेचना की जाती हो, लेकिन भारत में ये सच्चाई से कोसों दूर है. हाल ही में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों की अधिकतर चैनलों ने लाइव फै़क्ट-चेकिंग की थी. डॉनल्ड ट्रम्प बेशक ग़लत ख़बरें देने वाली मशीन बन चुके हों लेकिन उन्होंने कई प्रेस कांफ़्रेंस की हैं. वहीं पीएम मोदी ने पिछले 6 सालों में एक भी नहीं. प्रधानमंत्री के अधिकतर भाषण लोगों तक बिना किसी फै़क्ट-चेक या वेरिफ़िकेशन के पहुंचते हैं.
ABP न्यूज़ के मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर और न्यूज़ ऐंकर्स पुण्य प्रसून बाजपेयी और अभिसार शर्मा ने 2 साल पहले अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. उन पर दबाव था कि वे आलोचनात्मक रिपोर्ट्स और कॉन्टेंट से पीएम मोदी का नाम दूर रखें. उससे ठीक पहले रामदेव के पंतजलि ने चैनल से अपना विज्ञापन वापस लेने का फ़ैसला किया था.
भारत 2020 की वैश्विक प्रेस स्वतंत्रता में 180 देशों की सूची में 142वें स्थान पर था. एक तरफ़ फे़सबुक ‘फ़्री स्पीच’ की आड़ में हर देश के लिए एक जैसी नीति की बात करता है और दूसरी तरफ़ भारत में सिर्फ़ एक ट्वीट को लेकर भी पत्रकारों को जेल में रखा जाता है.
फे़सबुक को लगता है कि राजनेताओं के भाषण ‘पहले से ही काफ़ी सोच विचार किये’ होते हैं लेकिन हेमंत बिस्वा शर्मा का ‘आपत्तिजनक’ वाला ट्वीट बताता है कि ये सच नहीं है. जब तक फै़क्ट-चेकर्स ने इसकी सच्चाई बताई, कई न्यूज़ संगठन इस ट्वीट के आधार पर रिपोर्ट कर चुके थे.
ऑल्ट न्यूज़ ने चेक किया कि फे़सबुक ने ‘फॅ़ाल्स इन्फॅ़ार्मेशन’ का लेबल गैर-राजनीतिक पेजों या लोगों के शेयर किये वीडियो पे लगाया है या नहीं. फे़सबुक की थर्ड-पार्टी फै़क्ट चेकिंग प्रोग्राम के मुताबिक, “हम फै़क्ट चेक किये कॉन्टेंट पर कड़ी चेतावनी और नोटिफ़िकेशन लगाते हैं ताकि लोग देख सकें कि हमारे पार्टनर्स ने क्या निष्कर्ष निकाला है और वे खुद फ़ैसला कर पायें कि उन्हें क्या पढ़ना, भरोसा करना और शेयर करना है.”
नीचे उन सभी लिंक्स के स्क्रीनशॉट हैं जिनपर ग़लत मेसेज के साथ वीडियो शेयर किया गया है, लेकिन उनपर कोई भी वार्निंग नहीं है (पोस्ट 1,पोस्ट 2, पोस्ट 3).
फे़सबुक के पास एक जैसी और तक़रीबन एक जैसी तस्वीरों और वीडियो को डिटेक्ट करने की तकनीक है. इसका इस्तेमाल फै़क्ट-चेकिंग प्रोसेस को सेमी-ऑटोमेट (यानी, काफ़ी हद तक खुद से डिटेक्ट कर लेना) किया जा सकता है जहां उन तस्वीरों और वीडियोज़ पर खुद वार्निंग आ जाए जिनसे मिलते-जुलते कॉन्टेंट का फै़क्ट-चेक हो चुका है. थर्ड पार्टी आउटलेट्स के लिए भी ऐसे प्रभावी इंटरफ़ेस की सुविधा दी सकती है कि वे एक ही बार में बड़े स्तर पर कॉन्टेंट को टैग कर पायें.
हमने कई बार जानने का प्रयास किया कि क्या ग़लत सूचना पर फे़सबुक की ‘रेटिंग’ पॅालिसी सिर्फ़ लोगों और फै़क्ट-चेकिंग पार्टनर्स पर निर्भर है? हमें इसका कोई जवाब नहीं दिया गया.
तो हमने इसके बारे में खुद गहरायी से जानने की कोशिश की.
पिछले महीने एक महिला का वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वो पति की दूसरी शादी की बात पता चलने पर उसकी दूध की दुकान में तोड़-फोड़ कर रही थी. इस वीडियो को साम्प्रदायिक ऐंगल के साथ शेयर किया गया था. पति-पत्नी, दोनों हिन्दू थे लेकिन कई लोगों ने ग़लत दावा किया था कि मुस्लिम व्यक्ति ने हिन्दू महिला को ‘फंसाया’ है. ऑल्ट न्यूज़ और फे़सबुक फै़क्ट-चेकिंग पार्टनर बूमलाइव समेत कई आउटलेट्स ने इस वीडियो की सच्चाई बताई थी. बूमलाइव के आर्टिकल में ये वीडियो शेयर करने वाले एक यूज़र जग्गू पटेल के पोस्ट का लिंक भी दिया गया था. उसके पोस्ट में ‘फॅ़ाल्स इन्फॅ़ार्मेशन’ की वार्निंग लिखी हुई मिलती है.
लेकिन, बाकी लोगों के पोस्ट जिनके लिंक्स को रिपोर्ट में नहीं दिया गया, वहां कोई वार्निंग नहीं है.
अन्य फै़क्ट चेक्ड कॉन्टेंट में भी यही देखने मिलता है.
पिछले साल एक महिला पर हमला करने के लिए एक व्यक्ति को पीटने का वीडियो ‘लव जिहाद’ का ऐंगल देकर शेयर किया गया था. बूमलाइव के इसपर फ़ैक्ट चेक के बाद 2019 के ज़्यादातर लिंक्स मौजूद नहीं हैं, लेकिन कुछ अभी भी मौजूद हैं और उनपर कोई वॉर्निंग नहीं है. इसी वीडियो को पिछले महीने भी पहले जैसे दावों के साथ शेयर किया गया, बस शब्दों में फ़र्क था. द क्विंट ने भी इस क्लिप पर फै़क्ट चेक आर्टिकल पब्लिश किया था. इस वीडियो वाले कुछ लिंक्स पर फे़सबुक ने लेबल लगाया है, बाकियों पर नहीं. लेकिन अधिकतर वीडियो प्लेटफ़ॉर्म से हटा लिए गए हैं.
इसी तरह हमने देखा कि तस्वीरों में भी कुछ पर लेबल है और कई अभी भी बिना लेबल की हैं.
इस उदाहरणों से साफ़ होता है कि फे़सबुक पारदर्शी और समान फै़क्ट चेकिंग नीतियां नहीं अपनाता है. सोशल मीडिया के इस दिग्गज के मुताबिक, अपने पार्टनर्स के फै़क्ट चेक किये कॉन्टेंट को ये ज़्यादा लोगों तक पहुंचने से रोकता है और कई मामलों में ग़लत दावों वाले लिंक्स भी प्लेटफ़ॉर्म से हटाये गये. लेकिन, ये हर मामले में नहीं अपनाया गया. इसके अलावा, कई वीडियो और तस्वीरें बार-बार अलग-अलग दावों के साथ शेयर किये जाते हैं और पहले फै़क्ट चेक किये जाने के आधार पर उनपर कोई वॉर्निंग नहीं आती है. क्या फ़ेसबुक को अपने फै़क्ट चेक पार्टनर्स द्वारा सभी लिंक्स को टैग किए जाने की ज़रूरत होती है है या ये प्रोसेस ऑटोमैटिक है? ये बात साफ़ नहीं है. नेताओं के मामले में भी हमने देखा कि कांग्रेस नेता उदित राज के पोस्ट को लेबल किया गया था वहीं भाजपा विधायक हेमंत बिस्वा शर्मा के पोस्ट के लिए ऐसा नहीं किया गया.
इससे पहले ऑल्ट न्यूज़ ने अपने विश्लेषण में बताया था कि बूमलाइव और द क्विंट को छोड़कर भारत में फे़सबुक के अधिकतर फै़क्ट-चेकिंग पार्टनर्स ने भाजपा नेताओं द्वारा शेयर की गयी गलत सूचनाओं पर न के बराबर ही रिपोर्ट किया है.
पोलिटिकल नैरेटिव को आकार देने के लिए भारत में ग़लत सूचना को संगठित रूप से प्रचारित और प्रसारित किया जाता है. हमने बार-बार पाया है कि मंत्री पद पर बने नेता अपने हजारों-लाखों समर्थकों के साथ ग़लत और भ्रामक सूचनाएं शेयर करते हैं. पश्चिम के कुछ विकसित देशों की तरह भारत के पास सत्ता से सवाल करने वाला सशक्त मेनस्ट्रीम मीडिया नहीं है. राजनेताओं द्वारा पोस्ट की गई राजनीतिक भाषण और कॉन्टेंट के फै़क्ट-चेक से बचना फे़सबुक का खराब नीतिगत निर्णय है जो दुनिया के कई हिस्सों में राजनीति और मीडिया इंटरफे़स के बारे में निम्न स्तर की समझ का परिणाम है.
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