उत्तर प्रदेश सरकार ने 22 जुलाई को सुबह 4 बजे दिल्ली के मदनपुर खादर इलाके में ‘अवैध’ निर्माण का हवाला देते हुए कई रोहिंग्या शिविर गिरा दिए. खबरों के मुताबिक, ये कार्रवाई इसलिए की गई क्योंकि विवादित ज़मीन यूपी के सिंचाई विभाग की थी. यूपी के जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह ने योगी सरकार की सराहना करते हुए शिविर गिराए जाने का एक वीडियो ट्वीट किया.

इसके बाद, यूट्यूब पर एक भाजपा समर्थक प्रोपगेंडा न्यूज़ चैनल ‘प्यारा हिंदुस्तान’ ने कई ‘ग्राउंड’ रिपोर्ट्स (22 जुलाई, 23 जुलाई, 24 जुलाई) अपलोड कीं जिसमें AAP सरकार को दिल्ली के नागरिकों को अनदेखा करके रोहिंग्याओं को पानी, बिजली और नकदी मुहैया कराने वाला बताया.

23 जुलाई को प्यारा हिंदुस्तान के दावे को दोहराते हुए बीजेपी दिल्ली ने अपनी 23 जुलाई की रिपोर्ट का एक छोटा हिस्सा ट्वीट किया.

इसी वीडियो को बीजेपी दिल्ली के प्रवक्ता तजिंदर पाल सिंह बग्गा ने भी ट्वीट किया था. उन्होंने लिखा कि अगर लोग उत्तराखंड और गुजरात में AAP को वोट देते हैं, तो राज्य दिल्ली की तरह बदल जायेंगे.

फ़ैक्ट-चेक

रोहिंग्या एक उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय है जो 2010 की शुरुआत से म्यांमार में हुई हिंसा के बाद से भाग रहा है. 2018 में UNHCR ने द प्रिंट को बताया कि 40 हज़ार रोहिंग्या शरणार्थी दिल्ली, जम्मू, हरियाणा, हैदराबाद और जयपुर में रहते हैं. हालांकि, दिल्ली में UNHCR के कार्यालय में सिर्फ़ 17 हज़ार 500 रोहिंग्या रजिस्टर्ड हैं.

द प्रिंट के अनुसार, रोहिंग्या शरणार्थियों की बसावट के मामले में दिल्ली मुख्य जगहों में से एक है. यहां जसोला जैसी जगहों के अलावा यमुना नदी के किनारे मौजूद पांच बड़े अनौपचारिक शिविर भी हैं. मदनपुर खादर यमुना नदी के पास है.

ऑल्ट न्यूज़ ने मदनपुर खादर में रोहिंग्या समुदाय के नेता सलीम से बात की. उन्होंने बताया कि 2012 से मदनपुर खादर इलाके में 50 से ज़्यादा परिवार रह रहे हैं. उनकी बस्ती में अप्रैल 2018 और जून 2021 में आग लग गई थी. 2021 में आग लगने से दो महीने पहले, द कारवां ने रिपोर्ट किया था कि रोहिंग्या शरणार्थी डर में जी रहे थे क्योंकि दिल्ली पुलिस बिना कारण बताए शिविर के लोगों को हिरासत में ले लेती थी.

पिछले कुछ सालों में, रोहिंग्या समुदाय के नेताओं ने दो याचिकाएं दायर की हैं जिसमें बुनियादी अधिकारों और ग़लत तरीके से हिरासत में लिए जाने पर रोक लगाने की मांग की गई – जफ़र उल्लाह बनाम भारत संघ (859/2013) और मोहम्मद सलीमुल्लाह बनाम भारत संघ (793/2017). वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण, कॉलिन गोंज़ाल्विस और चंदर उदय सिंह (संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवेदक के रूप में) ने याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व किया है.

हालांकि 8 अप्रैल को मोहम्मद सलीमुल्लाह बनाम भारत संघ में, सुप्रीम कोर्ट ने रोहिंग्या शरणार्थियों के म्यांमार निर्वासन पर रोक लगाने के एक आवेदन को खारिज कर दिया था. इंडियन एक्सप्रेस में चंदर उदय सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के इस कदम की आलोचना की थी.

भारत 1951 के शरणार्थी सम्मेलन के पक्ष में नहीं है और देश में राष्ट्रीय शरणार्थी संरक्षण ढांचा नहीं है. पाठकों को ध्यान देना चाहिए कि भारत ने 1959 में नरसंहार के अपराध की रोकथाम और सज़ा पर कन्वेंशन को मान लिया है. 2016 में गृह मंत्रालय ने कहा कि भारत नरसंहार को एक अंतरराष्ट्रीय अपराध के रूप में मानता है और ये भारतीय आम कानून का एक हिस्सा है.

इस रिपोर्ट में हम इन सवालों के जवाब जानेंगे:

  1. AAP सरकार ने मदनपुर खादर में रोहिंग्याओं को जो सुविधायें दी हैं क्या उसकी तुलना दिल्ली के नागरिकों को दी जाने वाली सुविधाओं से की जा सकती है?
  2. क्या AAP सरकार ने मदनपुर खादर में रोहिंग्या शरणार्थियों को नकद पैसे दिए?
  3. क्या यूपी सरकार के पास दिल्ली में ज़मीन है?
  4. क्या रोहिंग्या शरणार्थियों ने यूपी सरकार की जमीन पर कब्ज़ा किया था?

क्या मदनपुर खादर में रोहिंग्याओं को दी जाने वाली सुविधाओं की तुलना दिल्ली के नागरिकों से की जा सकती है?

ऑल्ट न्यूज़ ने दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के ज़िलाधिकारी श्री विश्वेंद्र से बात की. उन्होंने बताया, “हम जो सहायता प्रदान करते हैं वो आपदा प्रबंधन राहत के दायरे में है. जून 2021 में रोहिंग्या शिविर में आग लगने के बाद, हमने पंखे और टेंट लगाए, ताकि गर्मियों में लू सही जा सके. खपत पर नजर रखने के लिए एक मीटर भी लगाया गया. 50 परिवारों को पानी की आपूर्ति के लिए एक टैंकर दिया गया है. हालांकि, इस सहायता की तुलना दिल्ली के नागरिकों को मिलने वाली सहायता से करना सही नहीं है.”

2018 में, WP 859/2013 के तहत, शीर्ष अदालत ने कई रोहिंग्या शिविरों में स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए एक आदेश जारी किया, जिसमें कालिंदीकुंज के मदनपुर खादर का एक शिविर भी शामिल है. अदालत ने दिल्ली में संबंधित जगह के राजस्व मजिस्ट्रेट को नोडल अधिकारी नियुक्त करने का निर्देश दिया. कोई सुविधा नहीं मिलने पर किसी बच्चे या रोगी के अभिभावक, माता-पिता और रिश्तेदारों, द्वारा की जाने वाली शिकायतों का समाधान इन अधिकारियों को करना था (PDF देखें). इस काम को एडिशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने स्वीकार किया.

एडवोकेट चंदर उदय सिंह ने ऑल्ट न्यूज़ को बताया, “जीवन की बुनियादी ज़रूरतों का अधिकार नागरिकता या राष्ट्रीयता से नहीं बल्कि मानवता के मौलिक सिद्धांतों से आता है. और भारत में इसी का आश्वासन आर्टिकल 21 में है जो सभी इंसानों पर लागू होता है. इसलिए अदालतों या राज्य सरकारों द्वारा मानवता की विवेचना करना गलत है, जैसे रोहिंग्या बस्तियों में पानी की आपूर्ति और बिजली जैसे ज़िंदा रहने के लिए बुनियादी सुविधाएं देना भारत के नागरिकों के साथ अन्याय बताना.”

रोहिंग्या समुदाय के नेता सलीम ने बताया, “पहले दो सालों में हमारे पास बिजली या पानी की आपूर्ति नहीं थी. 2014 में, हमने अलग-अलग तरीकों से बिजली की व्यवस्था की जिसका इलाके में काफ़ी इस्तेमाल हुआ. हम ये बता दें कि हम बिजली के लिए भुगतान कर रहे थे. कई बार अधिकारी आकर इसे काट देते थे.” इसके साथ ही उन्होंने बताया, “2018 में जब शिविर में आग लगी, उसके बाद SDM ने हमारे लिए टेंट लगवाए और बिजली के लिये मीटर भी लगवाया.फिर पांच महीने बाद वायरिंग में कोई ख़राबी आ गयी और हमें पुराने तरीकों का सहारा लेना पड़ा.” जलापूर्ति के बारे में हमारे सवालों के जवाब में सलीम ने कहा, “2019 तक, हम हैंडपंपों पर निर्भर थे. 2019 के आखिरी महीनों में हमें टैंकर के जरिए पानी मिलना शुरू हुआ. हालाँकि, यह COVID-19 लॉकडाउन के दौरान बंद हो गया. ”

सलीम ने आगे बताया, “22 जुलाई को शिविर हटाये जाने के बाद, SDM ने नये टेंट लगाए और पानी के लिए अलग बिजली का मीटर लगाया.”

New meter was installed at Madanpur Khadar Rohingya slum after UP government evacuated Rohingya settlement from their land. [Photo credit: Salim]
“5-6 घंटे छोड़कर, बिजली रहती है. रोजाना 1 हज़ार लीटर पानी का टैंकर आता है जिसे खाना पकाने, सफ़ाई करने, नहाने और पीने के लिए 300 लोगों के बीच बांटा जाता है. मैं रोज पांच बाल्टी पानी जमा करता हूं. लेकिन कुछ के पास केवल दो बाल्टी हैं. एक बार जब सभी लोग पानी जमा कर लेते हैं, तो बच्चे और कुछ बड़े टैंकर के नल से नहाते हैं. लेकिन शौचालय का न होना एक बड़ी मुसीबत है. कई लोगों को खुले में शौच करना पड़ता है.”

सलीम ने आगे कहा कि कुछ अफ़वाहों के मुताबिक़ अधिकारी उन्हें दूसरी जगह भेजने की फ़िराक में हैं. सलीम को उम्मीद है कि उन्हें कहीं और जगह दे दी जाये जिससे वो दिहाड़ी पर काम करना जारी रख सकें और उनके बच्चों को बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा मिल सके. “मैं आशा कर रहा हूं कि हमारी स्थिति और बिगड़े न.” सलीम ने चिंता करते हुए कहा. “मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि एक न्यूज़ चैनल ने हमें दी जा रही सुविधाओं को AAP सरकार की सुविधाओं का बेंचमार्क बनाने की कोशिश की.”

AAP सरकार ने मदनपुर खादर में रोहिंग्या समुदाय को बहुत कम सुविधाएं दी हैं. शीर्ष अदालत ने संबंधित SDM को दिल्ली सहित पूरे भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों को बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने का निर्देश दिया था.

क्या AAP सरकार ने रोहिंग्याओं को पैसे दिए?

विश्वेंद्र ने इस दावे को खारिज कर दिया कि दिल्ली सरकार मदनपुर खादर में रोहिंग्याओं को नकद दे रही है. “अगर सच में ऐसा होता तो इसमें कई नौकरशाही प्रक्रियाएं शामिल होतीं और एक लंबा पेपर ट्रेल होता. ऐसा कुछ नहीं हुआ है.”

पाठकों को ध्यान देना चाहिए कि प्यारा हिंदुस्तान की रिपोर्टर को कई लोगों ने कहा कि दिल्ली सरकार ने पैसे नहीं दिए हैं. हालांकि, रिपोर्टर ने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया और दावा किया कि व्यक्तिगत रूप से पैसे दिए गए थे.

सलीम ने बताया कि AAP विधायक अमानतुल्लाह खान ने जून 2021 में आग लगने के बाद खुद से पैसे दान किए. इसके अलावा, मदनपुर खादर में रोहिंग्याओं के कल्याण से जुड़े एक सूत्र ने नाम न छापने की बात पर पुष्टि की कि खान ने वित्तीय सहायता दी थी. ऑल्ट न्यूज़ ने इस बात पर जानकारी के लिए खान से संपर्क किया है. जब वो जवाब देंगे तो इस आर्टिकल को अपडेट किया जाएगा.

क्या UP सरकार के पास दिल्ली में ज़मीन है?

इस विवाद के सबसे उलझाने वाले हिस्से में से एक दिल्ली के भौगोलिक क्षेत्र में यूपी सरकार की दखलंदाज़ी है. 6 मिनट 30 सेकंड पर प्यारा हिंदुस्तान की 23 जुलाई की रिपोर्ट में इंटरव्यू लेने वाले ने पूछा, “दिल्ली में यूपी सरकार की कार्रवाई का सवाल कहां है?” विश्वेंद्र ने इस बात को कंफ़र्म किया कि विवादित ज़मीन असल में यूपी सरकार की है और दिल्ली में ऐसी कई ज़मीनें हैं.

कई समाचार रिपोर्ट (द हिंदू, टाइम्स ऑफ़ इंडिया) से संकेत मिलता है कि यूपी सरकार के पास दिल्ली में कई एकड़ ज़मीन है. मार्च में, यूपी के जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया, “यूपी सिंचाई विभाग के पास ओखला, जसोला, मदनपुर खादर, आली, सैदाबाद, जैतपुर, मोलर बैंड और खजूरी खास में ज़मीन है.”

क्या UP सरकार की जमीन पर रोहिंग्याओं ने कब्जा किया है?

विश्वेंद्र ने बताया, “2015 से पहले रोहिंग्या बस्ती ज़कात फ़ाउंडेशन की ज़मीन पर थी. बाद में, कई रोहिंग्या परिवारों ने यूपी सरकार की ज़मीन पर झुग्गियां बनाई. सालों से, यूपी सरकार सभी अतिक्रमणों को हटाने के लिए ज़िद कर रही है. ये ज़िद COVID-19 की दूसरी लहर के बाद और ज़्यादा हो गयी. फिलहाल, कोई भी रोहिंग्या सदस्य यूपी सरकार की ज़मीन पर नहीं रह रहा है. वे ज़कात फ़ाउंडेशन की ज़मीन पर शिफ़्ट हो गए.” ऑल्ट न्यूज़ ने ज़कात फ़ाउंडेशन से संपर्क किया मगर हमें कोई जवाब नहीं मिला. कैसा भी जवाब आने पर ये आर्टिकल अपडेट किया जाएगा.

नीचे दिया गया गूगल मैप का स्क्रीनशॉट उन जगहों को दिखाता है जहां 22 जुलाई के पहले शिविर लगे हुए थे. लाल रंग से दिखाया गया हिस्सा ज़कात फ़ाउंडेशन का है और लगभग 16 टेंट (हरी लाइन से दिखाये गए) साथ लगे हैं. पीले रंग से दिखाया गया हिस्सा यूपी सरकार की ज़मीन का है जहां कई टेंट बनाए गए थे. यूपी सरकार की ज़मीन पर लगे कैंप हटा दिए गए हैं और सभी परिवार फिलहाल लाल घेरे और हरी रेखा पर रहते हैं.

विश्वेंद्र ने आगे बताया, “शरणार्थियों को संभालने का मुद्दा गृह मंत्रालय और विदेशियों के रीजनल रजिस्ट्रेशन अधिकारी के अधीन आता है. मेरी जानकारी के अनुसार, संबंधित अधिकारियों द्वारा दिल्ली में सभी रोहिंग्या शरणार्थियों को एक जगह पर रखने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं.”

मदनपुर खादर में रोहिंग्या बस्ती की हालत के बारे में बताते हुए, सलीम ने कहा, “हम 2014 तक ऐसी तंग परिस्थितियों में रह रहे थे, कि हममें से कुछ को यूपी सरकार की ज़मीन पर शिफ़्ट होना पड़ा.”

ऑल्ट न्यूज़ ने कारवां के मल्टीमीडिया निर्माता CK विजयकुमार से भी बात की. उन्होंने यूपी सरकार द्वारा अतिक्रमण के विरोध में की गयी तोड़-फोड़ के बाद की घटनाओं को कवर किया था. “फिलहाल ज्यादातर शरणार्थी ने अपने शिविर ज़कात फाउंडेशन की ज़मीन पर बनाये हैं और लगभग 16 शिविर ज़मीन से सटी सड़क पर हैं.”

कुल मिलाकर, रोहिंग्या परिवारों के यूपी सरकार की ज़मीन पर सालों से बनाए गए घरों को 22 जुलाई को तोड़ दिया गया था. चंदर उदय सिंह ने अतिक्रमण के बारे में समझाया, “संकट में पड़े लोगों के बीच कोई अंतर नहीं है. वे घरेलू प्रवासी हों, श्रमिक, गरीब नागरिक जो अपने गांवों में प्राकृतिक आपदाओं या सूखे के कारण शहरों में खदेड़ दिए जाते हैं, और अत्याचार या नरसंहार के शिकार, जैसे रोहिंग्या, तमिल, चकमा, हाजोंग और अन्य लोग हों. ये ऐसे इंसान हैं जो अस्थायी रूप से बेघर हैं और अस्थायी बस्तियों में रहना इन्होने चुना नहीं है. ये परिस्थितिवश मजबूर हैं. वहां चाहे देश के नागरिक रहे हों या शरणार्थी, ऐसी बस्तियों की हकीक़त ही यही है कि वहां की बसावट अनधिकृत ही मानी जायेगी.”

एक वकील के रूप में अपने शुरुआती दिनों के एक कोर्ट रूम एक्सचेंज को याद करते हुए चंदर उदय सिंह बताया, “मुझे बॉम्बे हाई कोर्ट के जस्टिस SC प्रताप से हार का सामना करना पड़ा. जब मैंने, भारतीय राष्ट्रीय हवाईअड्डा अथॉरिटी का प्रतिनिधित्व करते हुए BSES हवाईअड्डे की जमीन पर अवैध मलिन बस्तियों में बिजली की आपूर्ति पर अपने मुवक्किल के इनकार को सही ठहराने की कोशिश की. जज इस बात से हैरान थे कि इंसानों को उनकी बुनियादी ज़रूरतों से सिर्फ इसलिए दूर किया जा रहा था क्योंकि वो मलिन बस्तियों में रहने के लिए मजबूर थे. ये इंसानियत का एक ऐसा सबक था जिसे मैं कभी नहीं भूल पाया.”

प्यारा हिंदुस्तान के यूट्यूब पर 24 लाख से ज्यादा सब्सक्राइबर हैं.

मदनपुर खादर में रोहिंग्या शिविर का 23 जुलाई का वीडियो पत्रकारिता के किसी भी ऐंगल से ‘ग्राउंड रिपोर्ट’ नहीं थी. चैनल ने ये दिखाने की कोशिश की, कि दिल्ली सरकार रोहिंग्या शरणार्थियों को सुविधाएं देते हुए दिल्ली के नागरिकों की अनदेखी कर रही है. दी गई सहायता शीर्ष अदालत के निर्देशों के अनुसार है और ज़िंदा रहने के लिए बुनियादी चीज़ें मुहैया कराती है. रिपोर्टर ने टेंट में घुसकर तंग जगहों में रहने वाले लोगों को परेशान किया और उनकी बातों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया. जब कई लोगों ने बात करने से मना कर दिया, तो वो उनके घरों के अंदर उनका पीछा करने लगे.

रोहिंग्या ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के शिक्षा प्रमुख अली जौहर ने ऑल्ट न्यूज़ को बताया, “प्यारा हिंदुस्तान की पत्रकारिता अनैतिक थी. आउटलेट ने तोड़-फोड़ के बाद लोगों की दुर्दशा दिखाने के बजाय ऐसा बताया जैसे वे एक शानदार जीवन जी रहे थे. चैनल ने ये रिपोर्ट क्यों नहीं दिखाई कि शौचालय नहीं हैं और इस पर ध्यान क्यों नहीं दिया कि बुनियादी सुविधाओं के बिना महिलाएं और बच्चे कैसे जीवन-यापन करते हैं?”


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🙏 Blessed to have worked as a fact-checking journalist from November 2019 to February 2023.