जर्नलिस्ट राणा अयूब ने एक तस्वीर शेयर की जिसमें कुछ पुलिसवाले लोगों को कान पकड़वाकर उकड़ू बिठा रहे थे. इसे मुर्गा बनना कहा जाता है. राणा अयूब ने दावा किया कि ‘मज़दूरों’ को कोरोना वायरस महामारी के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान बाहर निकलने की सजा दी गई थी. अयूब ने बाद में अपना ट्वीट डिलीट कर लिया.
24 मार्च के दिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशभर में 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा की थी. इस दौरान सिर्फ़ आवश्यक सेवाओं के चलने की इजाज़त थी. इस घोषणा के बाद पूरे देश में प्रवासी मज़दूर पैदल ही अपने घरों की तरफ़ निकलने लगे. ऐसी कई रिपोर्ट्स हैं, जिसमें पैदल घर जाने की कोशिश कर रहे मज़दूरों के साथ पुलिस की ज़्यादती का ज़िक्र है.
इस तस्वीर को इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल और जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन के ऑफ़िशियल ट्विटर अकाउंट ने भी शेयर किया. डेलरिम्पल ने भी बाद में अपना ट्वीट हटा लिया.
झूठा दावा
गूगल पर रिवर्स इमेज सर्च करने पर हमें 25 मार्च की द हिंदू, फ़ाइनेंशियल एक्सप्रेस और आउटलुक की कई न्यूज़ रिपोर्ट्स मिलीं, जिसमें इस फोटो का इस्तेमाल किया गया था.
तस्वीर के डिस्क्रिप्शन में लिखा था, “24 मार्च, 2020 को कोरोना वायरस महामारी के कारण लगे लॉकडाउन के दौरान, नियमों का उल्लंघन करने वाले लोगों को दंडित करती पुलिस.” द हिंदू ने इस फोटो का क्रेडिट न्यूज़ एजेंसी पीटीआई को दिया था.
ऑल्ट न्यूज़ ने पीटीआई के फ़ोटोग्राफ़र राहुल शुक्ला से संपर्क किया जिनके साथी ने पुलिस की कार्रवाई की सूचना मिलने के बाद इस तस्वीर को कैमरे में क़ैद किया था. “ये तस्वीर दोपहर लगभग 1:30 बजे खींची गई. लॉकडाउन के दौरान उत्तर प्रदेश के 75 ज़िलों में धारा 144 लगी थी.” गौरतलब है कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कानपुर में 23 मार्च से ही लॉकडाउन की घोषणा कर दी थी. राहुल शुक्ला ने बताया, “ये लोग बिना किसी कारण के बाहर निकले थे. कुछ लोग पैदल थे, बाकी बाइक पर थे. इनमें से कोई भी व्यक्ति ये साबित करने में नाकाम रहा कि वो राशन या दवा लेने के लिए बाहर निकला था.”
उन्होंने आगे बताया कि पुलिस ने लॉकडाउन की पाबंदी तोड़ने वालों से पहचान पत्र दिखाने के लिए कहा. “अगर ये लोग दिल्ली या बिहार के प्रवासी मज़दूर होते, तो उन्होंने अपने घर का पता बताने के लिए आधार कार्ड दिखाया होता, और तब पुलिस ने उनको सज़ा नहीं दी होती. लेकिन वो पहचान पत्र भी नहीं दिखा पाए.”
फोटो में कई ऐसे हिंट मिल जाते हैं, जिससे पता चलता है कि ये लोग प्रवासी मज़दूर नहीं थे, जैसे कि पीछे दिख रही बाइक्स और नदारद सामान.
ऑल्ट न्यूज़ ने पीटीआई की फ़ोटो गैलरी की भी छानबीन की. हमें पता चला कि तस्वीर 24 मार्च को ही खींची गई थी.
इसलिए, कानपुर में लॉकडाउन के दौरान, बाहर निकले लोगों को सज़ा देती पुलिसवालों की तस्वीर को, प्रवासी मज़दूरों के साथ दुर्व्यवहार का बताकर शेयर किया गया.
फ़ैक्ट-चेक की नाकाम कोशिशें
राणा अयूब के ट्वीट करने के बाद, कई ट्विटर यूजर्स ने उनके दावे का फ़ैक्ट-चेक करने की कोशिश भी की और स्क्रीनशॉट अपलोड कर इस बात पर जोर दिया कि ये तस्वीर पिछले साल की है. इनमें से एक बीजेपी नेता वरूण गांधी की सचिव इशिता यादव भी थीं.
You “dear country” is already crying because it has people like you, @RanaAyyub. pic.twitter.com/FheERePzoY
— Ishita Yadav (@IshitaYadav) March 30, 2020
ट्विटर हैंडल ‘@TheSquind’ ने भी दावा किया कि ये तस्वीर 2019 की है.
Why @MumbaiPolice is not taking action against @RanaAyyub for spreading hate & fake News pic.twitter.com/2kwQKZFWn6
— Isolated Squinty (@TheSquind) March 30, 2020
‘@erbmjha’ नामक अकाउंट से भी ऐसा ही दावा किया गया.
This is how propaganda works.@RanaAyyub tweeted an old image to defame the govt. @DalrympleWill picked it up & spread the same narrative.
When it’s done, Rana Ayyub deleted her tweet. Agenda Successful! pic.twitter.com/5oYlQsbQM5
— BALA (@erbmjha) March 30, 2020
हालांकि, आर्टिकल में दिख रही तस्वीर 24 मार्च, 2020 को खींची गई थी.
गूगल रिवर्स इमेज सर्च में दिखने वाली तारीख़ें कई बार ग़लत होती हैं. क्योंकि सर्च करने के दौरान परिणाम में उन तस्वीरों को बार-बार दिखाता है जो संबंधित आर्टिकल की फ़ीचर्ड/मुख्य तस्वीर नहीं, बल्कि दूसरे आर्टिकल्स का थंबनेल होता है. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि कई वेबसाइट आर्टिकल्स को उन रिपोर्ट्स के आधार पर लिस्ट करते हैं जो लोगों द्वारा लगातार पढ़ा जा रहा होता है. इसलिए, फ़ैक्ट-चेक करने के दौरान, रिपोर्ट को खोलकर देखना ज़रूरी है ताकि ये पता चल सके कि रिवर्स इमेज सर्च में दिख रही तस्वीर उसी आर्टिकल से संबंधित हैं जिसके बारे में हमने सर्च किया है.
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