सोशल मीडिया और व्हाट्सएप पर एक किताब के एक लेटर की तस्वीर काफी शेयर की जा रही है. दावा किया जा रहा है कि ये उस मेमोरेंडम की कॉपी है जिसके माध्यम से ब्रिटिश राज ने मोहनदास करमचंद गांधी को दी गई ‘महात्मा’ की उपाधि को ऑफ़िशियल रूप से मान्यता दी थी.
इस लेटर पर 2 सितंबर 1938 की तारीख लिखी है. वहीं लेटर में प्रोविंस के अलग-अलग विभागों को संबोधित करते हुए कहा गया है, “भविष्य में, श्री गांधी को सभी क्रॉस्पोंडेंस में ‘महात्मा गांधी’ के रूप में संदर्भित किया जाना चाहिए.”
ऑल्ट न्यूज़ के व्हाट्सऐप हेल्पलाइन नंबर (+91 7600011160) पर इसे लेकर हमें एक रीक्वेस्ट मिली है. साथ में कैप्शन लिखा है, “गांधी को महात्मा बनाया था अंग्रेजों ने, न कि भारत के लोगों ने. क्या आपको किसी और सबूत की ज़रूरत है?” ऑल्ट न्यूज़ को अपने ऑफ़िशियल ऐप पर भी इस दावे की सच्चाई जानने के लिए रिक्वेस्ट मिलीं.
ग़लत जानकारी शेयर करने का इतिहास रखने वाले ऋषि बागरी जैसे प्रमुख ट्विटर यूज़र्स ने भी ये दावा ट्वीट किया है. ऋषि बागरी के ट्वीट में लिखा है, “ब्रिटिश सरकार के उस मेमोरेंडम को देखना दिलचस्प है जिसके ज़रिए श्री गांधी ऑफ़िशियल रूप से महात्मा गांधी बन गए.”
It is interesting to see the memorandum of the British government through which Mr. Gandhi became Mahatma Gandhi officially pic.twitter.com/lilUngcBSI
— Rishi Bagree (@rishibagree) January 3, 2023
ये दावा फ़ेसबुक पर काफी तेजी से शेयर किया जा रहा है. पोस्ट कितना वायरल है ये दिखाने के लिए हमने नीचे एक स्क्रीन रिकॉर्डिंग शेयर की है.
फ़ैक्ट-चेक
सबसे पहले ऑल्ट न्यूज़ ने देखा कि वायरल मेमोरेंडम सेंट्रल प्रोविंस और बरार की सरकार ने साल 1938 में जारी किया था. ऐसा लगता है कि ये लेटर किसी ऐतिहासिक टेक्स्ट का हिस्सा है और इसके अंत में एक डिस्क्रिप्शन भी है जिसमें लिखा है, “एक कार्यालय आदेश 1938 में कांग्रेस सरकार ने सेंट्रल प्रोविंस में सभी (और विशेष रूप से ब्रिटिश) ऑफ़िशियल्स को गांधी को ‘महात्मा’ के रूप में संदर्भित करने का निर्देश दिया.”
1917 में पब्लिश ‘हिस्ट्री ऑफ़ द सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार‘ किताब में ये ज़िक्र किया गया है कि इस प्रोविंस का गठन 1861 में हुआ था. क्योंकि नागपुर, सौगोर और नेरबुड्डा क्षेत्र किसी भी स्थानीय सरकार के मुख्यालय से बहुत दूर थे जिन्हें आसानी से प्रशासित किया जा सकता था (पेज 156). हैदराबाद के निज़ाम के साथ एक समझौते के बाद बरार प्रोविंस का हिस्सा बन गया. ये अक्टूबर 1903 में लागू हुआ जब बरार को सेंट्रल प्रोविंस के मुख्य आयुक्त के प्रशासन में ट्रांस्फर कर दिया गया (पेज166).
1935 में भारत सरकार अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया था (PDF पढ़ें) जिसने कुछ नियमों के साथ चुनाव का रास्ता मजबूत किया. प्रोविंशियल चुनाव पहली बार 1937 में हुए थे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पांच प्रोविन्सेस में व्यापक जीत हासिल की जिनमें मद्रास प्रेसीडेंसी, आगरा और अवध के संयुक्त प्रोविन्सेस, सेंट्रल प्रोविन्सेस प्रांत और बरार, बिहार और उड़ीसा शामिल हैं. इस अवधि के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के संबंधों में भी खटास आने लगी थी.
तो जब मेमोरेंडम बांटा गया था,1938 में तब कांग्रेस सत्ता में थी. ये उस वक्त साबित होता है जब हम 1976 में पब्लिश बी आर टॉमलिंसन की किताब ‘द इंडियन नेशनल कांग्रेस एंड द राज, 1929-1942’ पर नज़र डालते हैं. 1937 के चुनावों के कारण ‘प्रोविन्सेस में कांग्रेस की सदस्यता और शक्ति में काफी बढ़ोतरी’ हुई.
हमने भारतीय इतिहास के एक प्रोफ़ेसर को वायरल मेमोरेंडम दिखाया जिन्होंने नाम न छापने की शर्त पर हमसे बात की. प्रोफ़ेसर ने बताया, “मेमोरेंडम असली हो सकता है, और मुझे ये भी याद है कि मुस्लिम लीग ने उस समय गांधी को महात्मा के रूप में संदर्भित करने के निर्देश का विरोध किया था. 1937 में द्वैध शासन प्रणाली के तहत नवनिर्वाचित, कांग्रेस सरकार के लिए ये स्वाभाविक था कि वो अपने नेता को सार्वजनिक जीवन में उनके लिए इस्तेमाल की जाने वाली उपाधि को ऑफ़िशियल कम्युनिकेशन में संदर्भित करना चाहती थी. इस बात का कोई संकेत नहीं है कि इसमें अंग्रेजों की मिलीभगत थी. असल में इसके उलट था क्योंकि मेमो का मकसद ब्रिटिश अधिकारियों को एक ऐसे व्यक्ति का सम्मान करने के लिए मजबूर करना था जिसे हाल ही में देशद्रोही कहा जा रहा था.”
प्रोफ़ेसर का कथन मेमोरेंडम के डिस्क्रिप्शन से भी मेल खाता है क्योंकि ब्रिटिश अधिकारियों को ही विशेष रूप से इस आदेश का पालन करने का निर्देश दिया गया था.
‘महात्मा’ की उपाधि
गांधी के लिए ‘महात्मा’ टाइटल का सोर्स सालों से बहस का विषय रहा है. ये लोकप्रिय रूप से माना जाता है कि टाइटल नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने दिया था. ‘रवींद्रनाथ टैगोर: एन एंथोलॉजी‘ किताब के लेखक प्रस्तावना में लिखते हैं कि टैगोर ही थे जिन्होंने सबसे पहले गांधी को महात्मा कहा था. हालांकि, उन्होंने अपने दावे के समर्थन में जिस हिस्से का हवाला दिया है, उसमें टैगोर ने लिखा है कि वो भारत के लोगों द्वारा गांधी को दी गई महात्मा की उपाधि का समर्थन करते हैं.
टैगोर स्कॉलर और प्रख्यात स्वर्गीय कवि शंख घोष का मानना था कि ये एक ग़लत धारणा थी कि रविंद्रनाथ टैगोर ने उन्हें ये टाइटल दिया था. 2016 में इस दावे पर विवाद के बाद कि गुजरात के एक पत्रकार ने पहली बार इस उपनाम का इस्तेमाल किया था, शंख घोष ने द टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया, “गांधीजी को पहली बार 12 जुलाई, 1914 में दक्षिण अफ्रीका के डरबन टाउन हॉल में एक स्वागत समारोह में ‘महात्मा’ के रूप में संबोधित किया गया था. भारत सरकार ने इस फ़ैक्ट को ‘महात्मा गांधी एक कालक्रम’ नामक किताब में पब्लिश किया है. हालांकि, रिपोर्ट में कहा गया है कि शंख घोष ने ज़िक्र किया था कि रविंद्रनाथ टैगोर ने टाइटल को लोकप्रिय बनाया था.
ऑल्ट न्यूज़ ने इसे भारतीय इतिहास के प्रोफ़ेसर को भी दिखाया जिन्होंने हमें बताया “मुझे यकीन नहीं है कि गांधी के लिए सबसे पहले महात्मा का सम्मान किसने किया था, लेकिन इतिहासकारों के एक वर्ग का मानना है कि ऐसा करने वाले पहले व्यक्ति उनके मित्र डॉ. प्राणजीवन मेहता थे जिन्होंने 1909 में गोपालकृष्ण गोखले को इस टाइटल से गांधी का ज़िक्र करते हुए लिखा था. टैगोर ने तब इसे लोकप्रिय बनाया. ये संभव है कि गांधी के लिए इस्तेमाल की जाने वाली उपाधि का कोई एक ही उद्गम नहीं था और ये कई लोगों ने उन्हें छिटपुट रूप से इस तरह से संदर्भित करना शुरू कर दिया जब तक कि ये एक प्रथा न हो गई.
2016 गुजरात उच्च न्यायालय का आदेश
2016 में राजकोट ज़िला पंचायत शिक्षा समिति, राजकोट और कई अन्य ज़िलों के लिए राजस्व विभाग में तलाती पदों पर नियुक्त करने वाली एक एजेंसी ने गांधीवादी विद्वान नारायण देसाई के काम का हवाला देते हुए दावा किया कि गांधी को पहली बार जेतपुर से भेजे गए एक गुमनाम लेटर में ‘महात्मा’ कहा गया था. हालांकि उस वक्त वो दक्षिण अफ्रीका में थे.
एक परीक्षा में शामिल होने वाली एक उम्मीदवार संध्या मारू ने तीन सवालों के उत्तर के संबंध में गुजरात उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की जिसमें गांधी को सबसे पहले ‘महात्मा’ के रूप में संदर्भित करने वाला सवाल भी शामिल है. ये तर्क दिया गया कि प्रोविजनल आंसर की में सही उत्तर थे. लेकिन फ़ाइनल की ने उन्हें ग़लत उत्तर से बदल दिया. प्रोविजनल की में कहा गया था कि ‘टैगोर’ सही उत्तर था. लेकिन फ़ाइनल की में इसे बदलकर ‘अननोन जर्नलिस्ट’ कर दिया गया.
याचिका को खारिज करते हुए, न्यायमूर्ति JB पर्दीवाला ने ये देखा कि सभी स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में रवीन्द्रनाथ नाथ टैगोर को इस टाइटल के सोर्स के रूप में बताया गया है. आदेश में कहा गया है, “इस दूसरे सवाल पर आते हुए कि गांधीजी को ‘महात्मा’ की उपाधि किसने दी, इसके बारे में मैं इस फ़ैक्ट पर ध्यान दे सकता हूं कि गुजरात माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा पब्लिश पाठ्यपुस्तकों में, विशेष रूप से कक्षा 9 में कहा गया है कि ‘रवींद्रनाथ टैगोर’ ने उन्हें ये उपाधि दी थी.”
इसमें आगे कहा गया है, “यदि राज्य के छात्रों को उसी के मुताबिक पढ़ाया जा रहा है, तो मैं ये नहीं समझ पाता कि रेस्पोंडेंट्स किस आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि दक्षिण अफ्रीका में किसी अनजान पत्रकार ने पहली बार ‘महात्मा’ की उपाधि दी थी. मैं ये कहने की कोशिश कर रहा हूं कि कोई भी सवाल तैयार करने से पहले, संबंधित अधिकारियों को उत्तर के बारे में 100% सुनिश्चित होना चाहिए. उम्मीदवार, जो कि एक प्रतियोगी परीक्षा में उपस्थित हो रहा है, निश्चित रूप से गुजरात माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक बोर्ड द्वारा पब्लिश पाठ्य पुस्तकों में बताई गई चीजों का ही पालन करेगा. फिलहाल मैं ये मान लेता हूं कि जवाब, बहस के योग्य है, लेकिन जब एक बार शिक्षा पाठ्यक्रम के एक हिस्से में ये साफ़ तौर पर बता दिया गया है कि “रवींद्रनाथ टैगोर” ने उनको ये उपाधि दी थी, तो इस मुद्दे पर और बहस करने की जरूरत नहीं है. इसलिए, सही उत्तर नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर होना चाहिए.”
अदालत ने स्थानीय निकाय को उचित मार्क्स देकर याचिकाकर्ता के रिज़ल्ट में संशोधन करने का आदेश दिया. पूरा फैसला यहां पर पढ़ा जा सकता है.
कुल मिलाकर, हालांकि ये निश्चित नहीं है कि गांधी के लिए पहली बार ‘महात्मा’ टाइटल का इस्तेमाल किसने किया था. लेकिन इसका साफ तौर पर कोई सबूत नहीं है कि ब्रिटिश राज ने उनको ये उपाधि दी थी. सोशल मीडिया में वायरल मेमोरेंडम 1938 में जारी किया गया एक नोटिस है जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सेंट्रल प्रोविंस और बरार की प्रांतीय सरकार का नेतृत्व कर रही थी.
दूसरी ओर, ब्रिटिश राज ने असल में मोहनदास करमचंद गांधी को एक उपाधि दी थी. लेकिन वो था कैसर-ए-हिंद. एडिनबर्ग विश्वविद्यालय के आर्काइव्स नोट के मुताबिक, “भारत में लोक सेवा के लिए कैसर-ए-हिंद मेडल 1900 और 1947 के बीच..नागरिकों के लिए..ब्रिटिश सम्राट द्वारा दिया गया एक मेडल था जिन्होंने ब्रिटिश भारत के हितों की उन्नति में विशेष सेवा प्रदान की थी…कैसर-ए-हिंद मेडल पानेवाले सबसे प्रसिद्ध व्यक्ति मोहनदास गांधी हैं. उन्हें 1915 में ये पुरस्कार दिया गया था.”
जालियावाला बाग हत्याकांड के बाद गांधी ने ये उपाधि छोड़ दी थी.
सत्ता को आईना दिखाने वाली पत्रकारिता का कॉरपोरेट और राजनीति, दोनों के नियंत्रण से मुक्त होना बुनियादी ज़रूरत है. और ये तभी संभव है जब जनता ऐसी पत्रकारिता का हर मोड़ पर साथ दे. फ़ेक न्यूज़ और ग़लत जानकारियों के खिलाफ़ इस लड़ाई में हमारी मदद करें. नीचे दिए गए बटन पर क्लिक कर ऑल्ट न्यूज़ को डोनेट करें.
बैंक ट्रांसफ़र / चेक / DD के माध्यम से डोनेट करने सम्बंधित जानकारी के लिए यहां क्लिक करें.