काफी पहले से ही भारतीय राइट विंग के बीच हिंदू महिला और मुस्लिम पुरुष के बीच अंतर-धार्मिक संबंध चिंता का विषय रहा है. हिंदू महिला द्वारा पारंपरिक मानदंड और रीति-रिवाज की कथित अवहेलना अक्सर मोरल पुलिसिंग और अतिसतर्कता का कारण बनती है. फिलहाल लोगों के बीच ‘लव-जिहाद’ का विचार काफी चर्चा में है. पिछले कुछ सालों में इस तरह की सतर्कता में बहुत ज़्यादा बढ़ोतरी देखी गई है जिसने श्रद्धा वॉल्कर हत्याकांड ने आग में घी डालने का काम किया है. क्यूंकि इस घटना का आरोपी आफताब अमीन पूनावाला एक मुस्लिम है.

समाज में हर तरफ इस जघन्य अपराध की निंदा हुई. जैसे ही इस भीषण हत्या की ज़्यादा जानकारी सामने आयी, कई प्रमुख हस्तियों ने इस घटना के बारे में दुख व्यक्त करने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स का सहारा लिया. सबसे पहले पता चला कि श्रद्धा और आफताब एक ऑनलाइन डेटिंग ऐप पर मिले थे और अपने मां-बाप की असहमति के बावजूद उन्होंने रिश्ते को आगे बढ़ाया. वो दोनों दिल्ली चले गए जिसके बाद, श्रद्धा के पिता के हवाले से ऐसी खबरें आईं कि उन्होंने आफताब के साथ अपनी बेटी के रिश्ते को अस्वीकार कर दिया था क्यूंकि आफताब एक मुस्लिम था. इसके बाद श्रद्धा मुंबई के अपने घर से बाहर चली गईं और परिवार के साथ एक साल से ज़्यादा समय के लिए संपर्क में नहीं थी. अब चूंकि ये सारी जानकारी सामने आई इसलिए आफताब और श्रद्धा की धार्मिक पहचान, उनका राजनीतिक विचार, उनकी जीवन शैली और जीवन विकल्पों की जांच सामाजिक और मेनस्ट्रीम मीडिया, दोनों में ही चर्चा का विषय बन गई.

कई न्यूज़ आउटलेट्स ने इस घटना पर लगातार रिपोर्ट की. ज़्यादातर रिपोर्ट्स में सांप्रदायिक उपक्रम, अपराध के बारे बेमतलब की डिटेल्स देकर पीड़िता को दोष देने और शर्मसार करने के साथ इस घटना को सनसनीखेज बनाने की कोशिश की गई.

नैरेटिव सेट करना

दिलचस्प बात ये है कि हमेशा से ही घरेलू स्थानों पर महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, अंतर-धार्मिक संबंधों पर निगरानी रखने और प्रतिबंधों की मांग करने वाले सामूहिक विरोध की ओर बातचीत बढ़ने लगी. इस मामले में आरोपी एक मुस्लिम शख्स है और पीड़िता एक हिंदू महिला है. इसलिए इस घटना को ‘लव-जिहाद’ के सिद्धांतकारों ने हवा दी जो मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए ऐसे रिश्तों का विरोध करते हैं.

उदाहरण के लिए ऋषि बागरी ने एक ग्राफ़िक ट्वीट किया जिसमें लिखा है, “श्रद्धा के जिंदा रहते उसको समझाते तो वह अंधभक्त बोल के ब्लॉक कर देती…” ट्विटर पर ऋषि बागरी के 2.5 लाख फ़ॉलोवर्स हैं. जब इस तरह की राय को आगे बढ़ाया जाता है तो इससे सामूहिक घृणा को बढ़ावा मिलता है और अक्सर वास्तविक जीवन में इनके खतरनाक परिणाम देखने को मिलते हैं.

 

सोशल मीडिया पर चलाई जा रही विचारधाराएं 2 तरह की थीं:

पहला, आरोपी मुसलमान होने के नाते अपने आप ही अपराधी घोषित कर दिया जाता है. मामला सुर्खियों में आने के कुछ घंटों के भीतर ही सोशल मीडिया पर ‘अब्दुल’ और ‘#लवजिहाद’ ट्रेंड करने लगा. कई ट्विटर यूज़र्स (विशेष रूप से राइट विंग के साथ जुड़े हुए) ने ये कहकर मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने की कोशिश की कि एक मुस्लिम व्यक्ति या ‘अब्दुल’ के साथ रिश्ता रखने का परिणाम श्रद्धा की तरह ही होगा. ऑपइंडिया की प्रधान संपादक नूपुर जे शर्मा ने ट्वीट किया, “आपका अब्दुल भी ऐसा ही है.” (आर्काइव लिंक) कुल मिलाकर, उनका कहना ये है कि सभी मुस्लिम पुरुष अपने-अपने जीवनसाथी के साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा कि आफताब ने श्रद्धा के साथ किया.

दूसरा, ये एक हिंदू महिला की ग़लती है कि वो अपने परिवार के खिलाफ़ जाकर, अपने धर्म का उल्लंघन करने वाले और ‘साफ़ तौर पर’ खतरों की अनदेखी करके मुस्लिम साथी को चुनती है. उदाहरण के लिए @dr_vee95 का ट्वीट:

इस ट्वीट का मतलब ये है कि मृतक भी अपराधी जितना ही ज़िम्मेदार है. क्यूंकि उसने भी अपने मां-बाप का कहना नहीं माना और घर छोड़कर बाहर चली गई. इस तरह की टिप्पणी का सार ये है कि एक महिला के लिए परिवार जैसी संस्थाओं की पवित्रता पर व्यक्तिगत आकांक्षाओं को चुनना अनैतिक है. इसलिए, इस तरह के अपराध करने के लिए उसकी मौत, एक तरह से न्याय है.

साफ़ तौर पर सांप्रदायिक ऐंगल के अलावा, ये राय राष्ट्रीय भावना के एक बड़े हिस्से को भी दर्शाती हैं जो लैंगिक संवेदनशीलता के बारे में इस देश की राय का खुलासा करती हैं. सोशल मीडिया पर किए गए ट्वीट्स और टिप्पणियां न सिर्फ पीड़िता और महिलाओं के लिए सेक्सिट्स और अपमानजनक हैं बल्कि जेंडर आधारित घृणा का उदाहरण भी हैं.

दोषारोपण और पीड़िता को शर्मसार करने वाली मानसिकता के पीछे, एक गहरी सोच ये है कि एक महिला कैसी होनी चाहिए और कैसी नहीं. दूसरे शब्दों में कहे तो एक आदर्श महिला और एक बुरी महिला के बीच का अंतर. अलग-अलग तरह की हेट स्पीच का डॉक्यूमेंटेशन करना भी ऑल्ट न्यूज़ का एक प्रोजेक्ट है. साथ ही मॉडरेशन ऑफ़ स्पीच को भी डॉक्युमेंट करना है जो लगातार बोलने की आज़ादी के अधिकार और प्रतिष्ठा के अधिकार के बीच लटका हुआ है. इसी संदर्भ में हम श्रद्धा वॉल्कर की मौत के बाद सोशल मीडिया पर व्यक्त की गई आक्रोश के पेटर्न का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे हैं. हमने हेटफुल कंटेंट को तीन विषयों में वर्गीकृत करने की कोशिश की है: 1. स्त्री द्वेष यानी महिला के खिलाफ घृणा, 2. आदर्श महिला बनाम बुरी महिला और 3. राजनीति और व्यवहार. श्रद्धा वॉल्कर हत्याकांड में शेयर किये गए कंटेंट ज़्यादातर इन्हीं विषयों के अंतर्गत आते हैं.

मिसॉजनी (औरत के खिलाफ घृणा)

इस मामले में किये गए कुछ ट्वीट्स सीधे महिला विरोधी हैं. मिसॉजनी, महिलाओं के लिए हीनता की भावना में विश्वास से उपजी गहरी नफ़रत और प्राकृतिक और न्यायपूर्ण रूप में महिलाओं के खिलाफ़ पूर्वाग्रह की स्वीकृति है. हर कल्चर में नारी द्वेष की समझ और प्रैक्टिस अलग-अलग होता है. सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स के प्रसार ने इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उदाहरण के लिए, महिलाओं की सामाजिक भूमिका अब घरेलू स्थानों तक ही सीमित नहीं है लेकिन उनकी स्वतंत्रता के मुखर दावे का तिरस्कार अक्सर किया जाता है.

हिंदुस्तान टाइम्स को दिए एक बयान में साइबर-मनोवैज्ञानिक डॉ. निराली भाटिया ने कहा, “केवल साइबरस्पेस एक मंच प्रदान करता है जहां सामाजिक मानदंडों या आचार संहिता से बंधे बिना ठीक वही कहा जा सकता है जो आप महसूस करते हैं… इंटरनेट आपको सामाजिक मानदंडों से दूर होने देता है.” हमें श्रद्धा वॉल्कर के इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर कुछ सबसे भद्दे और ग़लत कमेंट्स मिलें.

उदाहरण:

राईट विंग कॉलमिस्ट शेफाली वैद्य ने ऑपइंडिया के एक ट्वीट का स्क्रीनशॉट ट्वीट किया जिसमें कहा गया था, “आफताब की सभी 20 गर्लफ्रेंड्स से पूछताछ की जाएगी. उनकी कुछ गर्लफ्रेंड्स उस घर में भी गई थीं जहां श्रद्धा को काटा गया था. शेफाली वैद्य ने ट्वीट में लिखा है, “मुझे यकीन है कि उनमें से सारी 20 हिंदू लड़कियां मूर्ख और सेक्स के लिए बेताब थीं! ये सभी #श्रद्धावॉल्कर हो सकती थीं! #AftabAminPoonawalla #MeraAbdulAisaNahiHai.” (आर्काइव)

ज़्यादातर ट्वीट्स स्त्री द्वेष को स्वाभाविक बनाने के विचार का खुलेआम समर्थन करते हैं. इस बात का संकेत देने वाले ट्वीट्स बहुत आम हैं कि श्रद्धा वॉल्कर के साथ जो व्यवहार किया गया था, वो पारंपरिक हिंदू मानदंडों का पालन नहीं करने की वजह से किया गया था. उदाहरण के लिए @Saffron_Nik नामक यूज़र द्वारा किया गया ये ट्वीट देखिये. (आर्काइव)

सोशल मीडिया पर भी इस मामले को लेकर मीम्स और जोक्स की बाढ़ सी आ गई है. ‘फ्रिज’ और ‘सूटकेस’ से जुड़े अमानवीय मीम्स शेयर किए गए. अंतर-धार्मिक कपल्स की व्यक्तिगत तस्वीरों को सोशल मीडिया पर मनमाने ढंग से शेयर किया गया जिसमें यूज़र्स ‘फ्रिज या सूटकेस’ को लेकर सवाल पूछ रहे हैं. नीचे कुछ ट्वीट्स में सार्वजनिक कल्पना में अंतर-धार्मिक संबंधों के प्रति असंतोष की भावना को मजबूत करने की कोशिश की गई है.

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आदर्श महिला बनाम ख़राब महिला

महिलाओं को आदर्श या कुख्यात के रूप में स्टीरियोटाइप करना एक आम बात है. राइट विंग समुदाय द्वारा अक्सर इसका समर्थन किया जाता है और इस तरह के वर्गीकरण को बढ़ावा दिया जाता है. ये बायनेरिज़ सामूहिक विचारधारा को काफी आसानी से पकड़ लेती है. आदर्श महिला, लौकिक मातृ-रूप के अनुरूप होती है जो पारंपरिक पारिवारिक मूल्यों का पालन करती है. उदाहरण के लिए, ‘राष्ट्र’ को ‘मातृभूमि’ से जोड़ने की प्रवृत्ति. असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने श्रद्धा वॉल्कर की हत्या पर टिप्पणी करते हुए कहा, “अगर आज देश में एक मजबूत नेता नहीं है, एक ऐसी सरकार जो देश को मां के रूप में सम्मान देती है, तो ऐसे आफताब हर शहर में उभरेंगे और हम हमारे समाज की सुरक्षा नहीं कर पाएंगे.” इस तरह हिमंत बिस्वा सरमा प्रतीकात्मक रूप से महिलाओं को हर कीमत पर संरक्षित करने के लिए एक स्थान पर रखते हैं और उनके इंसान होने की बात से अलग कर देते हैं.

श्रध्दा की हत्या के बारे में ट्वीट करते हुए भाजपा समर्थक और हिंदुत्व कार्यकर्ता शेफाली वैद्य ने श्रद्धा वॉल्कर द्वारा अपने पिता की असहमति की अवहेलना करने पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की. ये एक आदर्श महिला की धारणा में आता है कि अपने मां-बाप की बातों का पालन करें और अपनी पसंद को दरकिनार कर दें. न सिर्फ उनके ट्वीट में एक पितृसत्तात्मक लहजा है बल्कि उन्होंने “…सिर्फ उसे असल में मरा हुआ और 35 टुकड़ों में कटा हुआ ढूंढने के लिए!” जैसे वाक्यांशों का इस्तेमाल करते हुए हत्या के संवेदनशील डिटेल्स का वर्णन किया है.

शेफाली वैद्य ने एक और नफ़रत भरे ट्वीट में हत्या का दोष श्रद्धा पर डालने की कोशिश की. उन्होंने ये महसूस किया कि जब पीड़िता ने अपने साथी के साथ रहने के लिए बाहर जाकर “अपने मां-बाप की भावनाओं को रौंदने” का फैसला किया, तो उसने अपनी निर्णय लेने की क्षमता को खो दिया था. उन्होंने ये भी पूछा कि श्रद्धा वॉल्कर अपने अब्यूसिव रिश्ते से बाहर क्यों नहीं निकल सकी, ये भी कहा कि उसके साथ जो हुआ उसके लिए पीड़िता को दोषी ठहराया जाना चाहिए. आप यहां पर ‘वीमेन अगेंस्ट एब्यूज’ का एक व्यावहारिक आर्टिकल पढ़ सकते हैं जिसमें बताया गया है कि पीड़िता के लिए अपमानजनक रिश्ते से बाहर निकलना अक्सर मुश्किल क्यों होता है.

राइट विंग कॉलमिस्ट मधु किश्वर ने ट्वीट किया, “एक और शहीद जिसने अपने मां-बाप की बात को बहादुरी से कुचल दिया, श्रद्धा वॉल्कर ने अपने मां-बाप से कहा, मेरा शरीर, मेरा अधिकार! भूल जाओ मैं तुम्हारी बेटी हूं’, आज उसकी मौत का शोक मनाने के लिए कोई भी नहीं बचा है सिवाय उसके मां-बाप के जिन्हें उसने अपमानित किया और बेरहमी से उन्हें खुद से दूर कर दिया!.”

‘मेरा शरीर, मेरी पसंद’ एक स्लोगन है जो शारीरिक स्वायत्तता और पसंद की स्वतंत्रता के विचार का प्रतिनिधित्व करता है. खुद के शरीर के बारे में निर्णय लेने की बात पर जोर देना जो एक बुनियादी मानव अधिकार है. मानव अधिकारों के क्षेत्र में दूसरे की शारीरिक अखंडता के उल्लंघन को या तो अनैतिक उल्लंघन और/या संभवतः आपराधिक माना जाता है. मधु किश्वर ने अपने ट्वीट में इस विचार का मज़ाक उड़ाया.

जब सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर हेटफुल कंडक्ट की बात आती है तो मधु किश्वर बार-बार अपने विचार शेयर करती है. उनके द्वारा की गई आलोचना में सिर्फ पिछड़ेपन की ही झलक नहीं दिखती बल्कि ये इससे भी आगे हैं. इस विचार में पितृसत्तात्मक संस्थानों में परिवार की गतिशीलता को साफ-सुथरा और मुश्किलों से दूर माना गया है. इसमें चालाकी से किसी भी महिला की अपनी इच्छाओं के संदर्भ की उपेक्षा की गई है.

पूर्व भाजपा सदस्य बलबीर पुंज एक ट्वीट में पूछते हैं, “क्या उसने अपने मां-बाप के बारे में सोचा? उनकी चेतावनी? इसका सीधा मतलब ये है कि पीड़िता अपने मां-बाप की बात पालन न करने की वज़ह से दोषी थी.

केंद्रीय मंत्री किशोर कौशल ट्वीट में कहा कि ‘लिव-इन रिलेशनशिप के लिए मां-बाप को छोड़ने के लिए लड़कियां ज़िम्मेदार हैं’, ‘पढ़ी-लिखी लड़कियां दोषी हैं’ या ‘पहले शादी करो, लिव-इन रिलेशनशिप अपराध को बढ़ावा देते हैं’. यहां उन्होंने पितृसत्तात्मक मानदंड को उजागर किया है. इस तरह, अगर कोई महिला जो आदर्श महिला के आख्यानों में फिट नहीं बैठती है, उसे अपनी पसंद के परिणामों के लिए तैयार रहना चाहिए.

महिलाओं को लेकर शेयर किये जा रहे ऐसे विचार का मुख्य नैरेटिव ये है कि जो महिलाएं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता देती हैं, जो सामुदायिक आदर्शों पर पकड़ नहीं रखती हैं, और जो अपने खुद के दिमाग से व्यक्तिवादी हैं, वो समुदाय के लिए खतरा है. ऐसी कल्पना में परिवार एक पवित्र और अजेय संस्था है जिसे आधुनिकता और अपनी सोच रखने वाली महिलाओं से खतरा है. ऐसी महिलाएं पितृसत्ताओं और सामाजिक संस्थाओं द्वारा निर्देशित किए बिना अपनी पसंद से अच्छे निर्णय नहीं ले सकती हैं. इस प्रक्रिया में सिर्फ इतना ही है कि उनसे अपने जीवन पर उनका खुद का हक छीन लिया जाता है. कुछ ट्वीट लोगों से जागरूकता बढ़ाने का आग्रह करते हैं ताकि ‘भोली’ हिंदू महिलाएं मुस्लिम पुरुषों की ‘शिकार’ न बनें. इस तरह के बयान महिलाओं को अपना साथी चुनने से रोकते हैं, खासकर अंतर-धार्मिक संबंधों के मामलों में.

राजनीति और प्रथा

ऐसे समय में जब सोशल मीडिया हमारे जीवन के हर पल की निगरानी और जांच को सक्षम बनाता है. हम जो बोलते हैं या समर्थन करते हैं, उसे हर कदम पर परखा जाता है. कथनी और करनी में कोई भी विरोधाभास किसी दृष्टिकोण को तुच्छ बनाने की गुंजाइश के रूप में देखा जाता है. उदाहरण के लिए, ये पर्याप्त नहीं है कि श्रद्धा अपनी पसंद की स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकार में विश्वास करती थी. ऐसी बातें करने वालों के लिए उसकी पसंद इस बात का जीता-जागता प्रमाण होना चाहिए कि उसने अपनी गरिमा की कितनी परवाह की. इस मामले में, पूरी चर्चा घरेलू हिंसा से स्थानांतरित हो गया जबकि श्रद्धा वॉल्कर घरेलू हिंसा का शिकार बनीं थी. जीवन के उदार तरीके को कोसने के लिए, पीड़ितों को दोष देने का रास्ता मज़बूत करना — ये मानसिकता नीचे दिए गए ट्वीट्स/टिप्पणियों में दिखती है:

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विक्टिम शेमिंग की भी बारीकियां हैं. उदाहरण के लिए, यूज़र @manasipkumar ने एक लंबा थ्रेड ट्वीट किया जिसमें सवाल किया गया है कि श्रद्धा वॉल्कर एक अपमानजनक रिश्ते से बाहर क्यों नहीं निकलीं. भले ही ये एक वैध प्रश्न है, पर ट्वीट\थ्रेड श्रद्धा वॉल्कर की पसंद के एक आसान और सहज मूल्यांकन के साथ खत्म होता है. ये पूछते हुए कि क्या वो ‘कोडिपेंडेंसी’ थी? डर था? आत्मसमर्पण का मुद्दा?’ जिससे वो वापस रुक गई. ऐसी टिप्पणियों में महिलाओं को मानवीय नहीं माना जाता है.

निष्कर्ष के तौर पर

पीड़िता को दोष देना सीधे तौर पर अपमानजनक नहीं होना चाहिए. ये विचार धीरे-धीरे समाज में घुसता है, धर्मनिरपेक्षता और स्वतंत्रता जैसे संवैधानिक रूप से स्वीकृत निर्माणों को अमान्य करके, मानवीय गरिमा और न्याय के विचारों को तुच्छ बना देता है. पीड़िता पर दोषारोपण तब और बढ़ जाता है जब नारीवाद और संबंधित अवधारणाओं को अक्सर एक महिला के रूप-रंग के आधार पर उपहास करते हुए एक अपमानजनक रूप से इस्तेमाल किया जाता है. पीड़िता को दोष देना और शर्मसार करना एक ऐसे समाज में आदर्श माना जाता है जहां एक समाज की नैतिकता को बनाए रखने का बोझ महिला द्वारा अपने दैनिक विकल्पों के माध्यम से उठाया जाता है जिसमें विफल होने पर वो गंभीर परिणामों के ‘लायक’ होते हैं या यूं कहा जाए कि उनके साथ दुर्व्यवहार करना जायज़ माना जाता है.

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