अवलोकन

आयुष मंत्रालय ने कोविड-19 के लिए आयुष से संबंधित दावों के सावर्जनिक विज्ञापन पर रोक लगा रखी है. इसके बावजूद कई राज्यों में, खासकर पुणे, वडोदरा, मुंबई जैसे बड़े शहरों में, होम्योपैथिक दवाओं जैसे कि आर्सेनिकम अल्बम 30 का, निजी और सरकारी माध्यमों से वितरण होते देखा गया है. आर्सेनिकम अल्बम 30 का वितरण, कोविड-19 पर आयुष के पुराने दिशा-निर्देशों के अनुसार किया जा रहा था. साथ ही, केरल, आंध्र प्रदेश, राजस्थान में राज्य प्रशासन और मुंबई बीएमसी तक ने रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए होम्योपैथी दवा के इस्तेमाल की सलाह दी है.

प्रभावी इलाज़ की कमी और लॉकडाउन के बावजूद कोविड संक्रमण के मामलों की बढ़ती संख्या की वजह से, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कोविड-19 से सुरक्षा के लिए होम्योपैथी और आयुर्वेदिक दवाओं वाली आयुष की गाइडलाइंस को मानने की सलाह दी थी. जनवरी 2020 में रिलीज़ हुई गाइडलाइंस को पीआईबी की वेबसाइट (रिलीज़ का लिंक) पर देखा जा सकता है. जब इसकी भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हुई, तब आयुष मंत्रालय ने Annexure I और Annexure II जारी किया. मंत्रालय ने एक इटैलियन रिसर्च रिव्यू (Bellavite et al. 2015) को पुराने बयानों को सही बताने और, कोविड-19 के ख़िलाफ़ प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में, आर्सेनिकम अल्बम 30 के असर को बताने के लिए, बतौर सबूत पेश किया.

इसकी वजह से, कई लोगों को ये भरोसा हो गया कि आर्सेनिकम अल्बम 30 नामक होम्योपैथिक गोली शरीर के प्राकृतिक सुरक्षात्मक तंत्र को विकसित करती है. चूंकि किसी भी होम्योपैथिक दवा का वेज्ञानिक रूप से और इसके रिसेप्टर्स पर, कोई असर नहीं दिखाया गया है, सेंट्रल काउंसिल ऑफ़ होम्योपैथी (CCRH) ने “a wide-range mechanism of action review article” (Bellavite et al. 2015) का इस्तेमाल ये साबित करने के लिए किया कि होम्योपैथी दवाएं इसी तरीके से काम करती हैं. CCRH के द्वारा लगातार अंतराल पर पेश किया गया ये पेपर, कोशिकीय और आणविक स्तर पर, होम्योपैथिक दवाओं के असर की परिकल्पना की ‘समीक्षा’ का दावा करता है.

हमने इस रिव्यू पेपर में आर्सेनिकम अल्बम 30 दवा के बारे में दिए गए प्रासंगिक बिंदुओं का साइंस-चेक किया, जिसमें इसके ‘मैकेनिज़्म ऑफ़ एक्शन’ का दावा किया गया है.

दावा:

होम्योपैथी दवाएं शरीर की कुदरती प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाकर कोरोना वायरस से सुरक्षित रखती हैं.

नतीजा:

ग़लत

फ़ैक्ट-चेक

हमारे शरीर का प्रतिरोधक तंत्र दो किस्म का है:

1. वंशानुगत या कुदरती प्रतिरोधक क्षमता

बाहरी रोगाणुओं के हमले की स्थिति में, हमारे शरीर के पास अपना रिस्पॉन्स सिस्टम है. हम इस प्रकार की प्रतिरोधक क्षमता के साथ पैदा होते हैं और, ये तब तक कम नहीं होता, जब तक कि शरीर प्रतिरोधक क्षमता को बर्बाद करने वाली दवाओं, बीमारियों या प्रक्रियाओं के संपर्क में न आ जाए. इसके कुछ उदाहरण हैं – एचआईवी संक्रमण, प्रतिरक्षा को कम करने या स्थायी अनिद्रा के लिए दी जाने वाली कोर्टिकोस्टेरॉयड दवा, स्थायी अनिद्रा.

2. परिस्थिति के अनुसार विकसित होने वाली प्रतिरोधक क्षमता

इस प्रकार की प्रतिरोधक क्षमता को प्राकृतिक या कृत्रिम कारकों से बदला जा सकता है. इसे गर्भस्थ बच्चे में मां के जरिए या बाद में किसी संक्रमण के पश्चात, जैसे कि चिकेनपॉक्स; या, वैक्सीन जैसे कृत्रिम माध्यमों से या कुछ मामलों में, इम्युन पॉज़िटिव व्यक्ति की एंटीबॉडी को असंक्रमित व्यक्ति में प्रवेश कराकर.

होम्योपैथी ने आर्सेनिक अल्बम 30 से प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का दावा कैसे किया?

होम्योपैथी ने कथित तौर पर एक प्रक्रिया का पालन किया, जिसके तहत आर्सेनिकम अल्बम 30, की गोलियां खिलाकर व्यक्ति की वंशानुगत या कुदरती प्रतिरोधक क्षमता को एक्टिवेट करने या बढ़ाने का दावा किया गया, जिससे हमारे शरीर में कोरोना वायरस जैसे बाहरी पैथोजन्स से लड़ने की ताकत पैदा हो सकती है.

होम्योपैथिक उपचार के ये दावे इंसानी आबादी पर किए गए अध्ययनों पर आधारित थे, जिन्होंने इनफ़्लेमेट्री मेडिएटर्स और साइटोकाइन्स जैसे प्रोटीन्स की अभिव्यंजता में बदलाव का दावा किया. ये प्रोटीन शरीर में रिलीज़ किए जाते हैं और, मुख्यत: रक्त से मापे जाते हैं. रक्त में इन प्रोटीन्स की मात्रा, पहले से मौज़ूद संक्रमण या इन्फ़लमेशन के स्तर को दर्शाती है. प्रोटीन को रिलीज़ किए जाने की प्रक्रिया भी क्रियाशील प्रतिरोधक तंत्र को दिखाती है. और, सक्रिय संक्रमण की स्थिति में, कम मात्रा में प्रोटीन रिलीज़ होना प्रतिरोध के बेअसर होने की स्थिति दर्शाता है जो कि बीमारी या बाहरी दवाओं के इस्तेमाल की वजह से होता है.

आर्सेनिकम अल्बम 30 पर CCRH द्वारा बताई गई रिसर्च

नीचे, हम Bellavite et al. 2015 में दिए गए उन सभी अध्ययनों की समीक्षा करेंगे, जिनमें बताया गया है कि आर्सेनिकम अल्बम 30, इम्युन प्रोटीन्स की रिलीज़ में बदलाव लाकर हमारे शरीर के प्रतिरोधक तंत्र को मज़बूत बनाता है.

1. ज़ेनेटिक मॉड्यूलेशन को नियंत्रित करके आर्सेनिक और पराबैंगनी प्रकाश से होने वाली विषाक्तता से बचाव के लिए आर्सेनिक अल्बम 30 का एक सुरक्षात्मक कंपाउंड के तौर पर इस्तेमाल का दावा

De et al. 2012, Das et al. 2012 और Das et al. 2011 जैसी स्टडीज़ का संदर्भ ये दिखाने के लिए दिया गया कि आर्सेनिकम अल्बम 30, दो बैक्टीरिया E. Coli और S. Cerevisae, में आर्सेनाइट की विषाक्तता को कम कर सकता है. चूंकि, ये तीनों रिसर्च स्टडीज़ बैक्टीरिया पर की गई हैं, न कि संक्रमित इंसानों या लैब में जानवरों पर. इसलिए इन्हें मैकेनिज़्म ऑफ़ एक्शन का सबूत नहीं माना जा सकता है.

साथ ही, गेंहूं के अंकुरों पर की गई एक स्टडी (Marotti et al. 2014) का इस्तेमाल ये साबित करने के लिए किया गया कि आर्सेनिकम को यूज़ करने से ज़ेनेटिक मॉड्यूलेशन के ख़िलाफ़ सुरक्षा मिलती है. सबसे पहले, उन्होंने RNA को एकस्ट्रैक्ट किया और गेंहू के बीज़ से ज़ीन एक्सप्रेशन (अभिव्यंजना) का अध्ययन किया. ज़ीन एक्सप्रेशन एक प्रक्रिया है, जिसके जरिए ज़ीन्स में लिखित जानकारी प्रोटीन के निर्माण को नियंत्रित करती है. इस अध्ययन से मिले परिणामों के बावज़ूद, इसे जानवरों की कोशिकाओं या ज़िंदा जानवरों या इंसानों पर लागू नहीं किया जा सकता है. दूसरी बात, ज़ीन के एक्सप्रेशन में परिवर्तन, यानि कि, प्रोटीन डिज़ाइन के लिए तय निर्देशों में बदलाव, कंपाउंड के सुरक्षात्मक या हानिकारक प्रभाव को निर्धारित नहीं करते हैं. ज़ीन एक्सप्रेशन दोनों परिस्थितियों में संभव है, अर्थात्, हानि पहुंचाने वाले प्रोटीन्स के निर्माण में, या, किसी ज़ीवित तंत्र के फ़ायदे के लिए प्रोटीन के निर्माण में.

इसलिए, इस रिसर्च में ऐसा कोई साइंटिफ़िक डेटा नहीं है जो साबित करता हो कि आर्सेनिक अल्बम 30, कोशिकीय नुकसान से बचाने के लिए, ज़ेनेटिक एक्सप्रेशन को नियंत्रित कर सकता है.

2. ये दावा कि प्रतिरोध सम्बन्धी प्रोटीन्स में जेनेटिक एक्सप्रेशन कुछ ऐसे बदलता है कि “ ज़रूरी जीन्स ख़ुद को चालू या बंद कर देते हैं जिससे एक ऐसी प्रक्रिया शुरू होती है जो कि बीमारी या विकार पैदा कर रहे जीन एक्सप्रेशन को ठीक कर देती है.” Bellavite et al. 2015

इस दावे का मतलब है, कथित तौर पर, एक होम्योपैथिक दवा, हमारे DNA में मौज़ूद, प्रतिरक्षा से संबंधित ज़ीन्स एक्प्रेशन को बदल सकती है, अर्थात, उस सूचना को बदलने का काम, जिससे प्रोटीन डिजाइन तैयार होता है. ये दावा है कि दवा के कारण नया बना प्रोटीन (प्रतिरक्षा से संबंधित), आरंभिक ज़ीन एक्सप्रेशन को ‘ठीक’ कर देगा. यह आरंभिक ज़ीन एक्सप्रेशन, जो कि नए प्रोटीन से ठीक किया जाएगा, कथित तौर पर वही प्रक्रिया है, जिसकी वजह से बीमारी हुई है.

इसका मतलब हुआ कि सभी बीमारियां, संबंधित ज़ीन एक्सप्रेशन और इसके प्रोटीन निर्माण की प्रक्रिया के कारण होती हैं. और, प्रतिरक्षा से संबंधित ज़ीन्स के एक्सप्रेशन में बदलाव करके सभी बीमारियों का इलाज़ किया जा सकता है. ये तर्क प्रमाणित है कि सभी बीमारियां या विकार ज़ेनिटक कारकों से संबंधित नहीं होती हैं – पर्यावरण और दूसरे पैथोफ़िजियोलॉजी कारक भी बीमारियों के इलाज़ में खास भूमिका अदा करते हैं. होम्योपैथी में इस दावे को स्वीकार्यता है और इसे कई स्थानों पर बतौर संदर्भ इस्तेमाल किया जता है.

होम्योपैथी की खोज हेनमेन ने 1796 में की थी और ये 1807 तक प्रिंट में नहीं आया था. हालांकि, वंशानुगत इकाईयों, जिसे अब हम ज़ीन्स के नाम से जानते हैं, में पहला प्रयोग 1857-1864 तक नहीं हुआ था. ग्रेगर मेंडल ने होम्योपैथी की खोज के लगभग 50 सालों के बाद ये परीक्षण किया. होम्योपैथी के संस्थापक की मौत 1843 में ही हो गई थी. इसलिए, ऊपर दिए गए रिसर्च पेपर में होम्योपैथी की कार्यप्रणाली का मैकेनिज़्म, एक टाइमलाइन में मेल नहीं खाता है. शायद, हेनमेन ने होम्योपैथी के लिए तय मॉडर्न मैकेनिज़्म को नहीं समझा, जिसे अब तक के होम्योपैथ्स साबित नहीं कर पाए हैं.

पेपर में समझाया गया है कि (Bellavite et al. 2015), “मदर टिंक्चर्स और हाईली डाइल्यूटेड दवाओं का मनुष्य के ट्यूमर सेल लाइन्स या carcinogens से प्रभावित कोशिकाओं पर परीक्षण किया गया; उन्होंने कुछ ख़ास mRNA markers (NF-κB, Akt, p53, Bax, Blc-2, caspase 3, Cyt-c) के एक्सप्रेशन के मॉड्यूलेशन को प्रभावित किया और ट्यूमर सेल की मौतों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई (Sunila et al. 2009, Hofbauer et al. 2010, Sikdar et al. 2014 & Mukherjee et al. 2013).”

NF-κB जैसे प्रोटीन मार्कर्स, कुदरती या शरीर की अपनी प्रतिरोधक क्षमता. को रेगुलेट करने में अहम हो सकते हैं. हालांकि, इन दावों के लिए जिन अध्ययनों को बतौर संदर्भ पेश किया गया, वो उतने पुख़्ता नहीं हैं जो इन दावों को सही ठहरा सकें. चूंकि ये अध्ययन आर्सेनिकम अल्बम 30 पर फ़ोकस नहीं करता और अधिकतर में तो इस दवा का कोई ज़िक्र ही नहीं है. उदाहरण के लिए, Sunila et al. 2009 में आर्सेनिकम अल्बम 30 का कहीं पर भी नाम नहीं आया है और रिसर्च, लैब में कल्टीवेटेड सेल लाइन्स में की गई थी. Hofbauer et al. 2010 में भी आर्सेनिकम का ज़िक्र नहीं है, जबकि प्रभावों का अध्ययन बैक्टीरिया पर किया गया.

इसके अलावा, Sikdar et al. 2014 में रिसर्च सेल लाइन्स और लंग कैंसर मॉडल्स वाले चूहों पर लैब में किया गया, लेकिन इसमें होम्योपैथिक फॉर्मूलेशंस या आर्सेनिकम या संक्रामक बीमारियों का कोई ज़िक्र नहीं है. फ़ाइनली, Mukherjee et al. 2013 में एक अन्य होम्योपैथिक दवा ‘थुजा’ का ज़िक्र है, जिसे चूहे के फेफडे़ से प्राप्त कैंसर सेल लाइन्स पर प्रयोग किया गया, जबकि इसमें आर्सेनिकम का कोई ज़िक्र नहीं है.

इसलिए, होम्योपैथी में सबसे ज़्यादा प्रचलित पेपर्स में से एक को CCRH ने ये साबित करने के लिए पेश किया कि आर्सेनिकम दवाओं का मैकेनिज़्म ऑफ़ एक्शन है. इसके बावज़ूद कि ये परीक्षण कोविड-19 के मरीजों पर नहीं किया गया था, बताए गए किसी भी अध्ययन में आर्सेनिकम अल्बम 30 का ज़िक्र नहीं है और ना ही ये टेस्ट संक्रामक बीमारियों से पीड़ित इंसानों या लैब में जानवरों पर ही किया गया है.

3. होम्योपैथी में अधिकतम हानि वाले पदार्थों की छोटी ख़ुराक को इलाज़ की तरह प्रयोग करने का दावा

आख़िरी दावे में, आर्टिकल (Bellavite et al. 2015) में Betti et al. 1997, Bode & Dong 2002 और Khuda-Bukhsh et al. 2011 के अध्ययनों का संदर्भ दिया गया है. इन तीनों अध्ययनों में से, Bode & Dong 2002 में विशुद्ध आर्सेनिक की चर्चा है, जो कैंसर का कारक भी बन सकता है और कैंसर का इलाज़ भी. Betti et al. 1997 में गेहूं के अंकुरों में पाई जाने वाली विषाक्तता का अध्ययन है. और, अंतिम Khuda-Bukhsh et al. 2011 इकलौती स्टडी है जो इंसानों पर की गई. लेकिन ये आर्सेनिक विषाक्तता पर आर्सेनिकम अल्बम 30 के प्रभाव को मापने के लिए किया गया था.

इसलिए, आयुष मिनिस्ट्री के ‘Annexure’ में दिए गए रिव्यू पेपर का एक भी अध्ययन ये साबित नहीं करता है कि आर्सेनिक या कोई दूसरी दवा की कम ख़ुराक से इलाज़ संभव है. और, वर्षों के औषधीय शोध से पता चला है कि दवा के प्रभाव के लिए सही ख़ुराक का होना बेहद ज़रूरी है.

निष्कर्ष:

Bellavite et al. 2015 रिव्यू आर्टिकल में बताए गए किसी भी अध्ययन से ये साबित नहीं हुआ कि आर्सेनिकम अल्बम 30 से इंसानों या जानवरों की प्रतिरोधक क्षमता विकसित होगी, जिससे कि उनको संक्रामक बीमारियों से सुरक्षा मिले. दरअसल, सेल प्रोटेक्शन, जेनेटिक मॉड्यूलेशन या कम ख़ुराक में अधिक प्रभावशीलता से संबंधित दावों को, किसी संक्रामक बीमारी के मॉडल्स में सिस्टमेटिक तरीक़े से जांचा नहीं गया है. इसलिए, कोविड-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई में होम्योपैथी को इम्युनिटी बूस्टर बताना, इस महामारी के दौर में आयुष मंत्रालय द्वारा पेश किया गया, भारी-भरकम प्रचार और सबसे ख़तरनाक छद्मविज्ञान है.

हमने ऑल्ट न्यूज़ साइंस के एक पुराने साइंस-चेक में, होम्योपैथिक दवाओं के मैकेनिज़्म पर ,उपलब्ध वैज्ञानिक साहित्य, की समीक्षा की थी और कुछ ज़रूरी सवाल भी उठाए थे. आप वो आर्टिकल इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं. इसके अलावा, हमने पाया कि बहुप्रचारित आर्सेनिकम अल्बम 30 दवा को, क्लिनिकिल ट्रायल्स में इंसानों पर टेस्ट नहीं किया गया है, जिससे कि CCRH के द्वारा किए जा रहे दावों की पुष्टि हो सके.

CCRH की साइंटिफ़िक एडवाइज़री बोर्ड ने भी कंफ़र्म किया कि हालिया कोरोना वायरस संकट से निपटने के लिए जिस दवा (आर्सेनिकम अल्बम 30) की सलाह दी जा रही है, उसे पहले भी इनफ़्लुएंज़ा जैसी बीमारियों के इलाज़ में इस्तेमाल करने की सलाह दी जा चुकी है (Mathie et al. 2009, Chakraborty et al. 2013, Varanasi, Gupta, et al. 2019). इसलिए, इस दवा को ना तो अभी के और ना ही पुरानी कोरोना वायरस बीमारी के इलाज़ के लिए विकसित किया गया है. और, ना ही किसी कोरोना वायरस संक्रमण के मामले में इसके प्रभाव की विधिवत जांच ही हुई है.

होम्योपैथी पर सरकार और मीडिया द्वारा किए गए ग़लत प्रचार के अलावा, कुछ उद्योपति भी इस दवा को भारी मात्रा में खरीद रहे हैं. उनका मकसद है, आर्सेनिकम अल्बम 30 के जरिए, ‘हर्ड इम्युनिटी’ से ख़ुद को, अपने परिवार को और अपनी कम्युनिटी को सुरक्षित करना. मशहूर उद्योगपति बजाज ऑटो के राजीव बजाज ने सलाह दी कि कोरोना वायरस महामारी से लड़ने की सबसे बेहतरीन रणनीति लॉकडाउन नहीं बल्कि होम्योपैथी और हर्ड इम्युनिटी है.

यद्यपि, जीवनशैली में परिवर्तन करके, विटामिन डी. पर्याप्त नींद लेकर प्रतिरोधक क्षमता का विकास संभव है. अभी तक, किसी भी दवा ने कोविड-19 महामारी से बचाव के लिए ‘इम्युनिटी विकसित’ होने के सबूत नहीं दिए हैं. संक्रमण से बचने का सबसे भरोसेमंद तरीक़ा है – साफ़-सफ़ाई, इंसानों और संक्रमण फैलाने वाली चीज़ों से शारीरिक दूरी और प्रोटेक्टिव गियर का इस्तेमाल.

जिन दवाओं की जांच नहीं हुई है, उनका इतने बड़े स्तर पर प्रयोग करना ग़लत सुरक्षा प्रदान करता है और कोरोना वायरस के प्रसार को बढ़ाता है. खासकर ऐसे समय में जब शारीरिक दूरी के पालन के बावजूद वायरस के प्रसार को रोकने में कामयाबी नहीं मिली हो.

रेफ़रेंस

  1. Mathie, R. T., Baitson, E. S., Frye, J., Nayak, C., Manchanda, R. K., & Fisher, P. (2013). Homeopathic treatment of patients with influenza-like illness during the 2009 A/H1N1 influenza pandemic in India. Homeopathy, 102(03), 187-192.
  2. Chakraborty, P. S., Lamba, C. D., Nayak, D., John, M. D., Sarkar, D. B., Poddar, A., … & Prusty, A. K. (2013). Effect of individualized homoeopathic treatment in influenza like illness: A multicenter, single blind, randomized, placebo controlled study.
  3. Varanasi, R., Gupta, J., Raju, K., Prasad, R. V., Sadanandan, G., Arya, J. S., … & Pramanik, A. (2019). Management of early years of simple and mucopurulent chronic bronchitis with pre-defined Homoeopathic medicines–a Prospective Observational Study with 2-Years Follow-Up. International Journal of High Dilution Research-ISSN 1982-6206, 18(3-4), 47-62.
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  14. Sikdar S., Mukherjee A., Ghosh S., Khuda-Bukhsh A.R. Condurango glycoside-rich components stimulate DNA damage-induced cell cycle arrest and ROS-mediated caspase-3 dependent apoptosis through inhibition of cell-proliferation in lung cancer, in vitro and in vivo. Environ Toxicol Pharmacol 2014; 37: 300-314.
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From 2017-2021, Dr. Shaikh was the Founding-Editor for Alt News Science. Her main role is as a neuroscientist researching violent extremism and psychiatry.