लाइव मिंट में प्रकाशित एक ओपिनियन पीस में संदीपन देब ने दावा किया कि भारतीयों पर कोविड-19 का कोई असर नहीं होगा, क्योंकि जेनेटिक तौर पर उनकी इम्यूनिटी मज़बूत है.
लेखक स्वराज्य मैगज़ीन के फाउन्डर भी हैं. जब ट्विटर पर उनसे इस दावे के बारे में सवाल पूछा गया, तब उन्होंने नेचर एशिया के एक आर्टिकल का हवाला दिया. इस आर्टिकल का शीर्षक था, “भारतीय जीन्स में अधिक प्रतिरक्षा क्षमता.”
द नेचर एशिया का आर्टिकल (2008), जो Du and colleagues (2008) की रिसर्च स्टडी पर आधारित था, ‘जीन्स एंड इम्यूनिटी’ नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ था. इसे अमेरिका स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया इन लॉस एंजिलिस (UCLA), भारत में एम्स और अमेरिका में नेशनल मैरो डोनर प्रोग्राम (NMDP) के वैज्ञानिकों ने मिलकर संचालित किया था.
दावा
‘भारतीय जीन्स में अधिक प्रतिरोधक क्षमता’ – नेचर एशिया पत्रिका के आर्टिकल का शीर्षक.
लाइव मिंट में संदीपन देव ने लिखा, “हमारा इम्यून सिस्टम दुनिया के सबसे मजबूत इम्यून सिस्टमों में से एक है. हम धूल और प्रदूषण के साथ बड़े हुए हैं, जिस वजह से हमारी स्वाभाविक प्रतिरोधक क्षमता विकसित देशों के लोगों से कहीं अधिक है.”
नतीजा
ग़लत.
फ़ैक्ट–चेक
1. लाइव मिंट का आर्टिकल ‘नेचर एशिया’ के आर्टिकल के सतही टाइटल पर आधारति है, न कि अंदर के कॉन्टेंट पर
नेचर एशिया के आर्टिकल का शीर्षक “भारतीयों में अधिक प्रतिरोधक क्षमता वाले जीन्स” है. हालांकि, इस आर्टिकल में, संबंधित रिसर्च स्टडी के आधार पर, ऐसा कोई दावा नहीं किया गया है कि भारत के लोग, आनुवांशिक सुरक्षा की वजह से कोरोना वायरस महामारी या किसी दूसरे संक्रमण से पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे. ये बस इतना बताता है कि प्राप्त डेटा के अनुसार भारतीयों में प्रतिरोधक क्षमता से जुड़े जीन्स की संख्या ज़्यादा हो सकती है. रिसर्च स्टडी और आर्टिकल के लेखकों में से एक राजलिंगम राजा लिखते हैं, “केआईआर (KIR) जीन्स का अधिक मात्रा में ऐक्टिवेट होना भारतीयों के लिए लाभदायक है या हानिकारक, ये अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है.”
इसका अर्थ है कि इस स्टडी में जांचे गए जीन्स, इस तथ्य का पुख्ता सबूत नहीं हैं कि मज़बूत इम्यूनिटी किसी भी संदर्भ में भारतीयों के लिए लाभप्रद ही होगी.
2. नेचर एशिया का लेख, विभिन्न प्रजातियों में एक जीन की बहुरूपता, की रिसर्च स्टडी पर आधारित है.
नेचर एशिया का लेख एक ऐसी रिसर्च स्टडी पर आधारित है, जिसमें भारतीय, पूर्वी एशियाई (caucasian), गोरे और ब्लैक (अफ्रीकन अमेरिकन) प्रजाति के लोगों में पाई जाने वाली सिंगल KIR2DL5 नामक जीन की बहुरूपता पर निर्भर है. मतलब ये कि ये जीन भारतीयों से इतर दूसरे लोगों में भी मिलता है. इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि जीन की उपस्थिति से जीन की अभिव्यक्ति या इस मामले में प्रारूपी बदलाव (जैसे कि उच्च प्रतिरोधक क्षमता) देखने को मिलेगा.
नेचर एशिया के लेख में Du and Colleagues (2008) के जीन के बहुरूपता के अध्य्यन को आधार बनाया गया है. जेनेटिक बहुरूपता का अर्थ ये है कि एक जीन के कई रूप होते हैं. जिसे समान आबादी में एक लक्षण या प्रारूप के तौर पर प्रदर्शित किया जा सकता है (Bull, 2004). ये समरूप होता है, लेकिन एक समान नहीं, जैसे कि आंखों, बालों और त्वचा के रंगों में रंगद्रव्य का अलग-अलग स्तर.
जिस स्टडी की बात की गई है, उसमें चार प्रजातीय समूहों में एक जीन KIR2DL5 की बहुरूपता का स्वभाव दिखता है. ये चार प्रजातियां हैं – गोरे (यूरोपीय नस्ल, अधिकतर श्वेत), एशियाई-इंडियंस (दक्षिण एशियाई), अफ्रीकन-अमेरिकन और एशियाई (पूर्व एशियाई, जैसे कि कोरियाई, वियतनामी, जापानी और फिलीपीनी).
KIR2DL5 (or CD158f) अंतिम ज्ञात KIR जीन (प्रतिरोधक कोशिकाओं की सतह पर दिखने वाला निरोधात्मक रिसेप्टर) हैं. KIR2DL4 के साथ मिलकर ये संरचनात्मक रूप से अलहदा वंशावली बनाते हैं, जो इंसानों जैसी प्रजातियों में पाया जाता है. भारतीयों में इस KIR2DL5 जीन का फ्रीक्वेंसी प्रतिशत उच्चतर प्रतिरोधक क्षमता का संकेतक है.
रिसर्च स्टडी से लिया गया ऊपरी ग्राफ़ बताता है कि एशियन-इंडियंस में अन्य प्रजातियों की तुलना में KIR2DL5 (ए और बी, KIR2DL5 जीन के बहुरूपीय स्वरूप) का फ्रीक्वेंसी प्रतिशत ज़्यादा है. हालांकि, इसी स्टडी से लिया निचला ग्राफ बताता है कि पर्याप्त मात्रा में KIR2DL5 जीन वाले व्यक्तियों की संख्या पूरी आबादी का 35-85 प्रतिशत होगी. अत:, लेखक के निष्कर्षों के आधार पर, उच्चतर प्रतिरोधक क्षमता हरेक प्रजाति की 35-85 प्रतिशत आबादी में मिल सकती है, ये सिर्फ भारतीयों के लिए नहीं है.
इसलिए, हरेक आबादी में जीन्स में इतनी बड़ी अस्थिरता के साथ, ये कहना असंभव है कि शोधकर्ताओं ने, अन्य प्रजातियों की तुलना में, भारतीयों में KIR2DL5 जीन के अधिक पाए जाने का स्पष्ट दावा किया है.
इस रिसर्च में ये दावा भी नहीं किया गया है कि एशियन-इंडियंस आबादी में उच्चतर फ्रीक्वेंसी, बेहतर रोग प्रतिरोधक तंत्र या नैचुरल किलर सेल्स (NK cells) की अधिकता से सीधे जुड़ी है. दरअसल, इम्युनिटी के संबंध में, जीन के आधार पर, किसी प्रजाति के बेहतर या खराब होने से संबंधित कोई निष्कर्ष नहीं बताया है.
3. क्या KIR2DL5 जीन का आनुवांशिक सामाग्री में होना बेहतर प्रतिरोध का लक्षण प्रकट करता है?
एक आबादी में अधिक जीन्स हमेशा अच्छे लक्षण ही नहीं लाते हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि जीन्स की अधिक मात्रा में होना हमेशा प्रोटीन की प्रचुरता नहीं करता जो कि फिर हमारे लक्षणों को प्रभावित कर सके. इसलिए, जीन्स की उपस्थिति, जीन की अभिव्यक्ति के संबंध में हमेशा वैशेषिक लक्षण लेकर नहीं आती.
कभी-कभार, नैचुरल किलर सेल्स (NK cells) में होने वाले बहुरूपीय बदलाव कुछ बीमारियों के प्रति अतिसंवेदनशील भी बना सकते हैं (ऑरेंज, 2002). इसलिए, इस संबंध में विस्तृत अध्य्यन होना चहिए कि KIR2DL5 जीन की उच्च फ्रीक्वेंसी से रोग प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है या नहीं.
4. सैम्पल का छोटा आकार
एक आबादी में बहुरूपीय जीन की उच्चतर फ्रीक्वेंसी के गुणकारी प्रभावों के बारे में, बड़े सैम्पल साइज़ की विस्तृत प्रोटीन, जीनोमिक्स और विकासवादी अध्य्यन, के बाद ही स्पष्ट निर्णय पर पहुंचा जा सकता है. लेकिन इस स्टडी में, 250 गोरों की तुलना में सिर्फ 96 भारतीय जीनोम लिए गए. इसलिए, बहुरूपीय KIR2DL5 जीन की उच्च फ्रीक्वेंसी छोटे सैम्पल साइज़ का परिणाम भी हो सकती है.
एशियन-इंडियंस के सिर्फ़ 96 रैंडम सैम्पल नई दिल्ली से मंगाए गए, जो कि भारतीय आबादी का बेहद सूक्ष्म प्रतिनिधित्व करते हैं. KIR2DL5 पॉजिटिव व्यक्तियों की पहचान के बाद इस सैम्पल साइज़ को और भी छोटा कर दिया गया.
और हां, नेचर एशिया के आर्टिकल में ये दावा भी किया गया है कि भारतीयों ने, सक्रिय KIR (killer cell immunoglobulin-like receptors) जीन्स, अफ्रीका से प्रागैतिहासिक तटीय प्रवास के दौरान पर्यावरणीय चुनौतियों से बचते हुए प्रकृति से प्राप्त किए होंगे. ये निष्कर्ष किसी साक्ष्य पर आधारित नहीं है.
‘द प्रिंट’ के ओपिनियन पीस में ऐसा ही दावा किया गया
एम्स के पूर्व डीन, डॉ. मेहरा ने, ‘द प्रिंट’ में अपने ओपिनियन पीस में उसी स्टडी का ज़िक्र किया जिसमें एम्स के एसके शर्मा भी शामिल थे. इस स्टडी के आधार पर उन्होंने कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ प्रतिरोधक क्षमता के संबंध में गोरों की तुलना में भारतीयों की जेनेटिक गुणवत्ता का दावा किया. साथ ही, डॉ. मेहरा ने भारतीयों के लिए फायदेमंद साबित होने वाले कुछ कारकों को भी शामिल किया – दूसरे पैथोजन्स से ओवर एक्सपोज होने की वजह से व्यापक प्रतिरोधक क्षमता, और पर्यावरणीय और भारतीय खाने में मसालों की खपत जैसे एपिजेनेटिक कारक. हालांकि, इस वायरस के नए होने और भारत में SARS-CoV-2 के रोगजनकों की बढ़ती संख्या की वजह से, इन दावों का ना तो कोई वैज्ञानिक साक्ष्य मिला है और ना ही इस संबंध में कोई रिसर्च सामने आई है.
निष्कर्ष
नेचर एशिया का आर्टिकल एक भ्रामक शीर्षक के साथ पब्लिश किया गया. वो भी एक ऐसी जेनेटिक्स स्टडी के आधार पर, जिसे रिसर्च करनेवालों ने खुद ही अनिर्णायक बताया था. ये टाइटल लाइव मिंट में श्रीमान संदीपन देब के लेख का आधार बन गया.
नेचर एशिया के लेखकों ने अपने भ्रामक लेख में नैचुरल किलर सेल्स (NK cells) को ‘प्रतिरोधक कोशिकाओं’ के साथ जेनरेलाइज कर दिया. नैचुरल किलर सेल्स (NK cells) इंसानी प्रतिरोध का बहुत छोटा हिस्सा हैं, न कि पूरा प्रतिरोधक तंत्र.
लाइव मिंट के लेख में, नेचर एशिया के आर्टिकल का इस्तेमाल, भारतीयों की प्रतिरोधक क्षमता के एकाधिकार के दावे को पुष्ट करने के लिए किया गया. संदीपन देब ने लिखा कि कोरोना वायरस महामारी का सामना करने के लिए, विकसित देशों के लोगों की तुलना में भारतीयों का प्रतिरोधक तंत्र अधिक तैयार है.
प्रतिरोध की जेनेटिक्स को समझे बिना लिखे गए इस तरह के खतरनाक ओपिनियन लेख, लोगों को लापरवाह बना सकते हैं. ऐसे लेखों की वजह से लोग सोशल डिस्टेंसिंग और दूसरे सुरक्षात्मक उपायों के लिए जारी सरकारी प्रोटोकॉल्स की अवहेलना कर सकते हैं या इससे गंभीर परिस्थिति में गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार को बढ़ावा मिल सकता है.
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