पत्रकारिता कुछ नैतिक मानकों पर चलने वाली एक रेलगाड़ी है, जिसके मजबूत पहिये बहुत बारीक परन्तु ठोस मूल्यों की पटरियों पर सरपट दौड़ने के लिए बने हैं। लेकिन जहाँ वह पहिये अपने दायरे लांघते हैं, रेलगाड़ी रुक जाती है, दुर्घटनाएं होती है और एक पूरा ढांचा बिगड़ जाता है। पत्रकारिता, लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ जिसकी भूमिका निष्पक्ष और संवेदनशील तरीके से किसी भी घटना का रिपोर्ट करना और उस घटना के लिए जिम्मेदार से सवाल करना होता है। लेकिन क्या आज की मीडिया ये भूल चुकी है? इसका ताज़ा उदाहरण अभी हाल ही में एक वीडियो में दिखता है।
https://www.youtube.com/watch?v=PPqpzAfEv8U
इस वीडियो में 1 मिनट और 12 सेकंड पर ‘एशियाई न्यूज़ इंटरनेशनल’ (ANI) के एक पत्रकार को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का पैर छूते हुए देखा जा सकता है। अब सवाल यह उठता है कि जब पत्रकार इस कदर नेताओं के फैन होते जा रहे हैं तो क्या उनमें उन्हीं नेताओं से तीखे सवाल पूछने की हिम्मत आ पायेगी? ANI के पत्रकार का हाव-भाव इस ओर इशारा करता है कि राजनीतिक वर्ग की करीबी के कारण मीडिया एवं पत्रकारों का समूह सरकारों, नेताओं एवं उनकी नीतियों के खिलाफ लिखने एवं बोलने में विनम्र, मृदु एवं ढीला पड़ सकता है। हमारा उद्देश्य केवल सवाल उठाना है और यह पूछना भी है कि इस नजदीकी को हमें किस तरह लेना चाहिए?
यह बात जगजाहिर है कि आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के पश्च्यात पुरे मीडिया ने उनका स्वागत खुले हाथों से किया था और खूब महिमामंडन किया था। न्यूज़ चैनलों पर दिन रात यही चर्चा आम होती थी कि योगी आदित्यनाथ ने कब क्या खाया, उनकी शक्ल हॉलीवुड के किस अभिनेता से मिलती है, वगैरह वगैरह।
हालाँकि डोनाल्ड ट्रम्प और योगी आदित्यनाथ एकसमान विभाजनकारी राजनीति करते हैं लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने से पहले ही उनकी आलोचना न्यूज़ ऍनकर्स द्वारा की गयी जबकि आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद जनता से उन्हें एक मौका देने की बात कही गयी।
ऐसा मालूम चलता है कि हम उस दौर में रह रहे हैं जहाँ पत्रकारों और न्यूज़ ऍनकर्स की किसी नेता से नजदीकी बहुत आम बात है और इसी कड़ी में हम देखते हैं कि पत्रकारों और न्यूज़ ऍनकर्स किसी नेता का फैन बनकर उस बात को जगजाहिर करने में गुरेज़ भी नहीं करते। इसका ताज़ा उदाहरण हमें इसी साल दिल्ली में भाजपा कार्यालय में दिवाली मिलन समारोह के आयोजन में मिला था जिसमें खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सम्मिलित हुए थे। कार्यक्रम के दौरान प्रधानमंत्री के साथ खुदको तस्वीर में कैद करने और सेल्फी खिंचाने की होड़ आमंत्रित पत्रकारों में लगी थी। नीचे पोस्ट किया गया विडियो 2015 की मिलन सभा का है।
PM Modi mobbed by media in selfie frenzy at Diwali Milan in party's headquartershttps://t.co/ks2XVaSCq9
— NDTV (@ndtv) November 28, 2015
प्रधानमंत्री के आस-पास जुटी इस कदर की भीड़ से कई सवाल पूछे जाने चाहिए। हमारे प्रधानमंत्री जिन्होंने अपने 3 साल के कार्यकाल के दौरान एक भी प्रेस वार्ता नहीं की, उनसे जब पत्रकारों को अंततः ऐसे मिलन समारोह में मिलने का मौका मिलता है तो वो उनसे सवाल पूछने के बजाय उनके साथ सेल्फी-सेल्फी क्यों खेलने लगते हैं?
जाहिर होता है कि राजनितिक वर्ग एवं मीडिया के बीच एक बहुत ही ताकतवर आपसी सहमति एवं लेन-देन का सम्बन्ध स्थापित हो रहा है। हाल ही में एक RTI के जरिये इस बात का खुलासा हुआ है कि मौजूदा केंद्र सरकार ने पिछले तीन सालों में 3700 करोड़ रूपये मात्र सरकारी विज्ञापन (प्रिंट, रेडियो, टेलीविज़न मिलाकर) पर खर्च किये हैं। ऐसा भी दावा किया जाता है कि सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले एवं उनसे तीखे सवाल पूछने वाले संस्थानों को सरकार की ओर से विज्ञापन नहीं दिया जाता है।
Yes they should actually to ask why NDTV isnt getting any 'official' ads.Speaking truth to power has its financial costs & we're paying it https://t.co/IkHRLBQWo7
— sonia singh (@soniandtv) December 19, 2017
इसी वजह से पत्रकारिता और राजनीती की नजदीकी चौंकाने वाली नहीं है क्यूंकि ज़्यादातर मीडिया संस्थान न की सिर्फ सरकारों एवं सत्ता में बैठे नेताओं से सवाल पूछने से कतराते हैं बल्कि जनता के समक्ष उनके लिए एक साकारत्मक एजेंडा भी तैयार करते हैं। और जो ख़बरें सरकार के खिलाफ में जाती हैं उन्हें दबा दिया जाता है।
ऑल्ट न्यूज़ ने इससे पहले भी आप सभी पाठकों को यह बताया है कि किस तरह गुजरात चुनाव के प्रचार के लिए कुछ न्यूज़ चैनलों ने गुजरात सरकार की छवि को अच्छा बताने के लिए दिन रात एक कर दिया। और विपक्षी दलों एवं सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले संगठनों की छवि को बिगाड़ने की कोशिश लगातार करते रहे। यह बात तार्किक लगती है कि सरकार से वित्तीय चाह रखने वाले मीडिया संस्थान सरकार के खिलाफ कभी नहीं लिख पाएंगे, न ही उनसे सवाल पूछ पाएंगे। और सबसे बड़ी चीज़, वो कभी स्वतंत्र भी नहीं हो पाएंगे और इसी वजह से जनता की सच से पहुँच दूर से दूर होती जाएगी. World Press Freedom index में भारत 180 देशों की सूची में 136 वें नंबर पर है जो हमारे मीडिया संस्थानों की बेचारगी का जीता जागता सबूत है।
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